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तुलनात्मक अध्ययन
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है । गंध है । ग्रव्यय है । नित्य है । अनादि अनंत हैं । (क० ग्र. १ व ३. मं १५ ) । मंडूकोपनिषदमें भी वह न अंतः प्रज्ञ है और न वहिप्रज्ञ । उभय प्रज्ञ भी नहीं हैं । दृश्य है । वह श्रग्राह्य है । ग्रचित्य है । केवल ग्रात्मानुभव से ही जाना जा सकता है । (मं. ७) छांदोग्य में भी ऐसा ही वर्णन मिलता है । वृहदारण्यक भी उसको श्रमृत, ग्रदृष्ट, प्रश्रुत श्रादि कहता है । 'नेति नेति' कहता है । गीताका सार भी यही है - वह 'श्रनादिनम् परं ब्रह्म' से लेकर, 'ज्ञाने ज्ञेयं ज्ञान गम्यं हृदि सर्वस्वधिष्ठित' (गीता १३ - श्लो. १२-१७) तक है । सब ज्ञानियोंने इसी विरोधाभास के ढंगसे काम लिया है । किंतु भक्तोंने दूसरा रास्ता अपनाया है । ज्ञानियोंने उसको निर्गुण कहा तो भक्तोंने सगुण । भक्तोंने कहा है, वह कृपामय है | दयामय है । भक्तवत्सल है | आनंदमय है । किंतु उन्होंने भी परमात्माका, ग्रर्थात् श्रात्यंतिक सत्यका वर्णन करते समय वचनकारोंकी भाषाका ही उपयोग किया है । जैसे महाराष्ट्र के संत मंडलके गुरु-रूप श्री ज्ञानदेवने सत्यका वर्णन करते समय कहा है, "दिवस र रातके उस पार, भले और बुरेके उस पार सब प्रकारके द्वंद्वोंसे उस पार जो शाश्वत ज्योति रूप प्रकाशित है" - ग्रादि कहकर अंत में यह प्रश्न किया है, " एकाकी श्रीर श्रव्यय
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होने से वह भी क्या प्रकाशेगा ?" ऐसा ही सेंट अगस्टाइनने कहा है, "परमात्माका अर्थ ही सत्य है । सत्य ही परमात्मा है । वह सर्व व्यापी है ।" इसी प्रकार महाराष्ट्र के एक श्रौर संत एकनाथ महाराजने कहा है, "सत्य तेंचि पर ब्रह्म !" हिंदी संत रामानंदजी कहते हैं, "जहां जाइये तहं जल परवान । तू पूरि रह्यो है सब समान ।" गुरु नानक भी कहते हैं, "सर्व निवासी सदा श्रलेपा तोहे संग समाई।" रैदासने "सब घट अंतर स्मसि निरंतर " कहा है। तथा श्री तुलसी दासने "तुलसी मूरति रामको घट-घट रही समाय । ज्यों मेहंदीके पात में लाली लखी न जाय ।" कहा है। तुलसीदासजीने उस परमात्म-तत्वको जो मेहंदी के पातमें न लखी जा सकने वाली लालीके समान व्याप्त रहता है "राम" कहा है चोर वचनकारोंने उसी तत्वको 'शिव' कहा है । परमात्म-तत्व मनुष्यकी बुद्धि, वाङमनको श्रगोचर है । वेद प्रागमादिके हाथ न लगने वाला है | कितना ही प्रयास क्यों न करें, वह अंतर-मनको भी नहीं सूझता । सूझने पर भी समझमें नहीं आता । समझमें थाने पर भी समझाया नहीं जा सकता । मेंहदी के पात में जो लाली छिपी होती है, वह दीख नहीं सकती, किंतु पीसने पर प्रत्यक्ष होती है, वैसे ही उस एक रस प्रखंड सत्य तत्वका साक्षात्कार होता है । साक्षात्कारसे उसका अनुभव करना होता है । इसके अलावा दूसरा चारा ही नहीं । इस लिए संतोंने साक्षात्कारका मार्ग अपनाया । उस मार्ग पर वे चले | साक्षात्कारका अनुभव किया। और लोगोंको वही मार्ग बताकर कहा, "ग्राइए, हम सब