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तुलनात्मक अध्ययन
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अमृतान्न खानेका अनुभव है। वहां संपूर्ण शब्द-मुग्धता है। आत्यंतिक मौनका साम्राज्य-सा ।.... - 'मैं', 'मैं' में से पैदा हुआ । 'मैं' 'मैं' को देखता हूं। 'मैं', 'मेरा' यह मिट गया कि 'वह' दीखता हैं। वही सब कुछ है, वही सर्वत्र है यह प्रतीति होती है। कर्म, अकर्म, नाम, रूप, सब 'कुछ मिटकर मैं वही हो गया। ... वह प्रकाश मुझको ऊपर ले जाता है । अब मैं प्रात्मकाम हुआ हूं। मैंने उस अरूपके चरण कमल देखे । उसकी कृपासे ही यह दर्शन हुआ । मैं आनंद सागरमें डूग। दरिद्रको भाग्य मिला। मेरे रोम-रोममें वह आनंद भरा हुआ है। मुझे दिव्योन्माद हुआ है। अब मैं अनिर्वचनीय अ.नंद अनुभव करने लगा हूं। ..." शाश्वत प्रकाशका उत्सव 'फूट पड़ा है । गूढ़ सुंदर घंटा-नाद गूंज रहा है। करोड़ों चंद्रमाअोंकी शीतल चांदनी छिटक रही है । स्वर्गीय विश्वसे गीतकी ध्वनि मुझे लोरियां गाकर सुला रही है ।" उपर्युक्त उपमाएं रूपक, तथा शब्द-चित्र कई वचनकारोंके वचनोंसे अक्षरश: मेल खाते हैं । देश, काल, परिस्थिति, भाषा आदिकी भिन्नता होने पर भी निरपेक्ष भावसे आध्यात्मिक साधना करने वाले सव संतोंका अनुभव एक है।
कर्नाटकके संतोंमें दो परंपराएं हैं । शिवशरण और हरिशरण । शिवशरणोंमें भी वचनकारोंके अलावा भिन्न शैली में लिखनेवाले अनुभावियोंकी संख्या कम नहीं है । उनमें सर्वज्ञ, निजगुण शिवयोगी, सर्पभूषण, महालिंगरंग आदि प्रसिद्ध हैं। उनका भी अनन्त साहित्य है । वह वचन साहित्यसे भिन्न है । इसके बाद हरिशरणोंका साहित्य । हरिशरण सब द्वैत संप्रदायके हैं । उनका संप्रदाय माध्व संप्रदाय है। हरिशरणोंके साहित्यको 'कीर्तन' कहा जाता है जैसे शिवशरणोंके साहित्यको 'वचन' कहा जाता है। कीर्तन-साहित्य में भक्ति, गुरु महिमा, नाम महात्म्य, सत्संग, ज्ञान, वैराग्य आदि बातें हैं। इन विषयों में वचनकारों और कीर्तनकारोंमें कोई मतभेद नहीं है। ये हरिशरण भी बड़े अनुभावी थे। उन्होंने भी साक्षात्कारके विषयमें लिखा है । उन्होंने लिखा है, "हरिनाम नामकी कुंजीसे आज मेरे अंतःकरणका महाद्वार खुला।" "हाथमें ज्ञानदीप लेकर देखा तो सर्वत्र भगवानका शृंगार-सदन फैला था। रत्नजटित मंटपके मध्यमें कोटि रवि-तेजसे दैदीप्यमान सच्चिदानंदको देखा । हृदय-कमल पर विराजमान वह दिव्य-रूप मैंने देखा ।" "मैंने उस अच्युतको अपनी आंखोंसे देखा । उस भानुकोटि तेजवानको मैंने देखा। मुझे उसके चरणकमलोंका दर्शन हुआ । वह मेरे हृदय में आकर स्थिर हो गया है।" "भगवानकी पूजा करनेवालों को वह अत्यंत सुलभ है । भूमंडल ही उनका पीठ है। सोम-सूर्य ही दीप हैं नक्षत्र-मंडल ही लक्ष दीपावली है।" आदि शब्दोंसे उन्होंने विराट् पुरुषका