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तुलनात्मक अध्ययन
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नामदेवने कहा है, "यह शरीर रहे या न रहे, वि.तु तेरा विस्मरण न हो ! मेरा मन तुम्हारे चरणों में दृढ़ हो।" "तुम्हारे चरण नहीं छोडूंगा यदि छोडूंगा तो तुम्हारी कसम !" और मीराकी विरह व्याकुलताका क्या कहना ? दरद दीवानी मीरा कभी सूली पर सेज विद्याकर कैसे सोऊं की समस्या खड़ी करती है तो कभी असुबन जलसे प्रेम वैलिको सींचने वैटती है ! मीराके शब्दों में कहना हो तो "घायलकी गति घायल ही जानता" है। सूरदास भी उन्हीं घायलों में एक है। उनकी अांखें तो हरिदरसनके लिए प्यासी हैं । इसीलिए वह निसि-दिन उदास रहती हैं। क्योंकि उनका प्यारा नेह लगाकर तन सम त्यागि गयो है । मानो गले में फांसि डारि गयो !! संतोंकी इस व्याकुलताका वर्णन जैसे तुलसीदासने किया है, "तहसमुख शेषनाग भी वखान नहीं कर राव.ता।" तुकारामने इसी व्याकुलतामें तेरह दिन तक अन्न-पानी भी त्याग दिया था। वैसे ही भगवान रामकृष्ण परमहंसदेव की व्याकुलता इसी युगकी बात है। परमात्मा दर्शन की आकांक्षा कितनी तीन हो सकती है इसका वह प्रत्यक्ष प्रमाण है।
भक्तिभी साक्षात्कारका एक मार्ग है। नारद शांटिल्यके भनितमूत्रमें "सापरानुरक्तिरीश्वरी भक्तिः" ऐसी गपित गन्दगी व्यात्यापी है। अर्थात् ईश्वर में प्रात्यंतिक अनुरक्ति ही भक्ति है। उसमें अनन्यता हो । अहेतुक सर्वसमर्पण भाव हो। यह शक्तिके उत्तम लक्षण हैं। वचनामृत के बारहवें अध्यायमें इस विषयमें वचनकारोंका जो विचार है उसका दिग्दर्शन है । पूजादि बाहरी कायिक कागसि नवितका प्रारंभ होता है। भजनकीर्तनादि वाचिक कमोसे बढ़ती है । स्मरण-मननादि गानसिक कार्योंसे सूक्ष्म रूप धारण करके सर्वार्पण भाव में परिणित होती है। यह सर्वसमर्पण अथवा आत्म-निवेदन भक्ति-मंदिरका स्वर्ण कलश है। भक्ति में प्रथम रागुण तत्वको आवश्यकता है । क्योंकि प्रीतिके लिए अवलंब अनिवार्य है । परमात्माका सगुण रूप वह श्रावन है। भक्त अपने हृदय गह्वरमें फूट पड़नेवाली अपनी भावोमियोंको ईश्वरानुरक्तिके रूप प्रवाहित करता है । उनको भगवान के चरण तक ले जाता है। तव भवतप्रीतिकी सगी कलात्रोंमें भगवान को ही देखता है। उसे वह मां कहता है। पिता कहता है । पुन पाहता है। सखा श्रीर प्रिय कहता है । गुरु और स्वामी कहता है । मानव-जीवनमें आनेवाले सभी मधुर और पवित्र संबंधोंमें वह भगवानको देखता है । उनसे वोलता है। उनसे रोता हैं । उनसे प्रार्थना करता है। और उनको डांटता भी है। यहां भवतकी सब मानवोचित भावोमियां भगवदुर्पण होती हैं । भक्ति नबरसोंकी जननी है । निरहेतुक अनन्य समर्पण, तथा तज्जन्य ईश्वरानुरक्तिसे साधकको प्रात्यंतिक सत्यका साक्षात्कार होता है। यही भक्तिका स्वरूप है । उनि पद कालमें भक्ति