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तुलनात्मक अध्ययन
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दासने "जिनकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी” कहकर “किसने कैसी-कैसी देखी” इसका वर्णन करते-करते ज्ञानियोंने प्रभुको "वदूषन प्रभु विराट्मय देखा षटुमुख कर युग लोचन शीशा " कहा है । मानो वह “विश्वतोमुख विश्वतो बाहु विश्वतस्थात विश्वतो चक्षुः" श्रादि विराट् पुरुषको देख रहे हों । ऐसे ही गुरु नानकदेवने "गगनमें रवि थालु रवि चंद्र दीपक वने तारिका मंडल जनक मोति" और " धूपु मल ग्रानलो पवस्णु चवरो करे ।" - कहकर विराट् पुरुषकी विराट्पूजा की है । आखिर रहिमनने तो थोड़े में अत्यंत सुंदर वर्णन किया है, "प्रीतम छवि नैनन बसी पर छवि कहां समाय । भरी सराय रहीम. लखि पथिक ग्राय फिर जाय ।" एक बार जब सत्यका साक्षात्कार किया इन आंखों में वह बस गया। जहां देखो वहां जो देखो सो, सत्य-दर्शन है । जैसे, कबीर कहते हैं, “खुले नै'न पहिचानो हंसि हंसि सुंदर रूप निहारो !” एक नाथ महाराज कहते हैं, “जहां देखों वहां रामहि रामा ।" अथवा " जो देखूं वह राम सरीखा " हो जाता है । वही तुकाराम महाराज कहते हैं, " जहां जाता हूं वहां तू मेरा साथी है । मेरा हाथ पकड़कर चलाता है ।" इसके लिए 'मैं' को मिटाना पड़ता है । जैसे कि रहिमनने कहा है, " रहिमन गलि है सांकरी दूजो ना ठहराय आपु है तो हरि नहीं हरि तो श्रापुन नाहीं ।" हरिके लिए जिन्होंने पुनको नाहीं किया कि हरि-दर्शन हुआ । एक बार हरिदर्शन हुआ कि उस दर्शनसे दीवाना हुया । बावला हुआ और अपने श्राप वह दर्शनानुभव कूकने लगा । क्योंकि हरदमका प्याला जो चढ़ा रखा है ! अथवा कवीरके शब्दों में "विना मदिरा मतवारे" बनकर जो 'झूमते ' हैं किंतु इन मतवालोंकी सब बातें एक सी नहीं होतीं । क्योंकि इसमें से कोई अपने इष्ट देवका सगुण साक्षात्कार करता है और उसीसे झूम उठता है । और दूसरा प्याले पर प्याला चढ़ाकर साक्षात्कारकी अंतिम चोटी पर चढ़कर अगम्य, प्रतीत चिद्रूपका दर्शन करता है । यही प्रात्यंतिक ध्येय है । इसके अलावा अन्य प्रकारके साक्षात्कार इस दिव्य साक्षात्कारके प्रतिविवमात्र हैं । किंतु किसी भी दर्शनको तभी साक्षात्कार कह सकते हैं जब वह सदैव, तथा सर्वत्र प्रांखों के सामने स्थिर रूपसे रहता हो। ऐसा साक्षात्कार प्रत्यक्ष होता है । उसके लिए किसी प्रकारके प्रमाणकी आवश्यकता नहीं है । वह किसी प्रकारके बाहरी प्रमाणसे प्रवाधित हो, वह साधककी काया, वाचा, मनमें प्रोत-प्रोत हो, तव साधकको उसके विषय में यत्किचित् भी संशय नहीं रहता । इन लक्षणोंसे युक्त अंतःस्फुरित अनुभव ही साक्षात्कार कहलाता है । यही वचनकारोंके जीवनसाहित्यकी नींव है | यही उनके जीवनका रहस्य है । इसी प्रकाशमें वचनकार अथवा उनके जैसे ग्रन्य सत्पुरुषों के आत्मानुभवका यहां ससंक्षेप और सादर