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तुलनात्मक अध्ययन
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है। राहुके मुखसे मुक्त चंद्रमा जैसे प्रफुल्ल बनता है वैसे वह प्रफुल्ल रहता है।" बृहदारण्यकका ऋषि भी यही कहता है, "देवोंकी तरह यह सब मैं ही हूं, ऐसी भावना होती है।" उस स्थितिका आनंद अद्भुत है । उस स्थितिमें पहुंचने पर न मां मां रहती है न बाप वाप; और न भगवान ही भगवान रहता है। वह तो सब प्रकारके द्वैत-भावसे परे हो जाता है। उस स्थितिमें हृदयके सब शोक, मोह आदि नष्ट हो जाते हैं, लय हो जाते हैं। वह पुण्यानंदमें डूबा रहता है। यही जीवनकी अत्युच्च स्थिति है। इस विषय में प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटोने कहा है, "अन्य शास्त्रों के साक्षात्कारमें अनुभव पाने वाले सत्यका जैसा वर्णन किया जाता है वैसा आध्यात्मिक शास्त्रके साक्षात्कारमें अनुभव पाने वाले सत्यका वर्णन नहीं किया जा सकता। यदि यह संभव होता तो मैं जीवन-भर वही काम करता रहता। उसका वर्णन करनेसे अधिक अच्छी बात और कौनसी हो सकती है ?" उसके बाद प्लेटोके तत्वज्ञानका पुनरुज्जीवन करने वाले उनके शिष्य प्लोटीनसने कहा है, "यदि जीवको एकमेवावद्वितीयके साथ एक रस होनेका अनुभव एक बार आया कि .... वही जीव शिवैक्य कहलाता है। ... वहां सौन्दर्य की प्रतीति भी नहीं होती । क्यों कि वह उससे भी परे पहुंचता है। सद्गुणोंके संगीत का भी वह अतिक्रमण कर जाता है। वह ईश्वर भावाविष्ट हो जाता है। पर शांति का अनुभव करने लगता है। वहां चांचल्यकी एकाध तरंग भी नहीं होती । तब 'मैं' नामका भान भी नष्ट हो जाएगा। वह मूर्तिमंत स्थिर होकर रहेगा।" स्पेनमें एक ईसाई साधु हो गये हैं। उनका नाम है सेंट जॉन. श्रॉफ द कॉस। उन्होंने कहा है, "प्रेम सूत्रसे जीव और शिव इतनी हृढ़तासे बंध जाते हैं कि वह दोनों एक हो जाय । तत्वतः वह दो होने पर भी उस स्थितिमें जीव शिव और शिव जीव अभिन्नसे हो जाते हैं। उनकी अभिन्नतासी अनुभव होती है ।" टॉलर नामके अनुभावीने कहा है, "सोपाधिक जीव परिवर्तित होते-होते अंतर्यामी हुआ कि उस निर्मल आत्मामें परमात्माका प्रत्यक्ष अवतरण होता है ।" सेंट अगस्टाइन नामके और एक अनुभावीने अपने अनुभवको सुंदर शमोंमें चित्रित किया है- "वायविलके एक विशिष्ट अंशके पढ़ते ही एक शांत तेज मेरे हृदय गह्वरमें प्रवेश कर गया । युग-युगांतरसे वहां मंडराने वाले संशयोंके वादल सब छंट गये । हमारे इंद्रियों के अनुभवमें आनेवाले परमावधिक आनंद भी उस आनंदके नाखून पर न्योछावर हो सकते हैं। इतना ही नहीं, किसी भी शब्दसे उस आनंदकी तुलना करना बड़ी भूल होगी। सहस्र स्वर्गोका सुख भी उसके सामने तुच्छ है । वह सुख केवल परमात्माके अंत.ध्यानसे ही संभव है। उस स्थितिमें वही परशिव, जीवको सत्य-ज्ञानका अमृतान्न खिलाकर संतृष्ट करता है । ..... " ऐसा ही एक जर्मन दार्शनिकने कहा है, "मैं जीवात्मा हूँ, यह