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तुलनात्मक अध्ययन
अव तक साहित्य, तत्वज्ञान, धर्म और नीतिकी दृष्टिसे वचन-साहित्यका विवेचन किया गया। अब थोड़ा-सा यह भी देखलें कि अन्य संतोंने भी क्या कहा है ? कन्नड़ वचनकार संत थे। सत्पुरुष थे। सत्यकी खोज करने वाले साधक थे। सत्यका साक्षात्कार किए हए अनुभावी थे। भिन्न-भिन्न देश, काल, परिस्थितिमें उन जैसे अनुभावियोंने क्या कहा है ? क्या उन सबमें समानता है ? यह भी देखें। वस्तुतः यह विषय अत्यंत विशाल और गहरा है । इसी एक विषय पर कई ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। उनके जीवन, उनका साध्य, उनकी साधना-पद्धति आदिका तुलनात्मक अध्ययन अत्यंत श्राकपंक हो सकता है। किंतु हमारा यह अध्ययन अत्यंत सीमित है। केवल उन संतोंके वचनों तक ही है। वह भी इस पुस्तकमें जो विषय पाए हैं, उन विपयों तक ! जैसे परमात्माका वर्णन, साक्षात्कार, जिज्ञासा, निष्काम भक्ति, नीति-नियम, सत्संग, गुरु कृपा, समष्टि आदि विषयों तक । देश, काल, भाषा, आदिको भिन्नता होने पर भी वस्तुतः संतोंका अनुभव एक है । वैसे तो समग्न मानव-कुल एक है । मानव मात्रका स्वभाव एक है। प्रत्येक मनुष्य सत्यको चाहता है । सुख चाहता है। जिस किसीने सत्यका दर्शन किया, शाश्वत सुखको पा लिया, उसका अनुभव एक होना स्वाभाविक है। किसी भी कालमें और किसी भी भापामें, किसी भी देशमें और किसी भी शैलीमें कहा गया सत्यका अनुभव एक होना अनिवार्य है। हो सकता है कि भाषा, शैली, देश, काल, परिस्थिति वश उसका बाहरी रूप भिन्न हो । पोशाक भिन्न हो। किंतु 'अनुभव-अंतःकरण' एक होना स्वाभाविक है। यदि हम अपने संकुचित अभिमानके पर्देको, जो सत्यका सम्यक दर्शन होने नहीं देता, हटालें तो हमारा निर्मल अंत:करण अनुभव करेगा कि संतोंके वचनों में एक ही प्रात्म-संगीत गंज रहा है। वह सबको अपने स्वर से स्वर मिला कर दिव्य विश्व-संगीतमें सम्मिलित होनेका निमंत्रण दे रहे हैं। इस आत्म-संगीतकी रागात्मिकताका बोध करा लेना ही इस अध्यायको लिखनेका मूल उद्देश्य है। .. कन्नड़ वचनकारोंका परमात्मा अवर्णनीय है। वाङमनको अगोचर है । वह नित्य है । सत्य है। अंतर-बाह्य व्याप्त है। ईशावास्योपनिषदमें कहा है, "वह न दूर है न पास, वह सर्वातर्यामी है। शुद्ध है। सर्व व्यापी है । (मं० ५. ८.) कठोपनिषदका परमात्मा भी अशब्द है । अस्पर्श है । अरूप है । अरस