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वचन साहित्य में नीति और धर्म
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पाप नहीं माना। उनकी दृष्टिमें शुद्ध, शांत सेवामय जीवन ही "धन" था । भक्तोंको धनकी कमी होनेपर भी धन्यताकी कमी नहीं है । उनका यह नियम था कि अपनी गरीबी में से भी सत्कर्मके लिए कुछ न कुछ निकालना चाहिए ।
वही बात ब्रह्मचर्यकी । वस्तुतः ब्रह्म-प्राप्ति के लिए व्रतस्थ रहना ही ब्रह्मचर्य है । अव काया, वाचा, मनसे स्त्रीसे कोई संबंध न रखना ही ब्रह्मचर्य माना जाता है । किंतु वचनकार नहीं मानते। वह शास्त्रोक्त रूपसे केवल अपनी पत्नीसे ही संबंध रखना ब्रह्मचर्य मानते हैं । केवल धर्मपत्नीसे, और वह भी शास्त्रानुसार सहवासको उन्होंने ब्रह्मचर्य माना है । इस विषय में उनका मत स्पष्ट है । वचनकार संयम के समर्थक हैं । वह दमनको ग्रावश्यक नहीं मानते । वे मनुष्यकी सामान्य प्रवृत्तियोंको नष्ट करनेके पक्ष में नहीं हैं । जब कभी उन्होंने स्त्री-सहवासका विरोध किया है स्त्री शब्द के साथ 'पर' शब्द जोड़ा है । साथसाथ 'अंगीकृत स्त्रोको त्यागना भी घोर पाप' होनेकी बात कही है । जैसे वह पर स्त्री संगको पाप मानते हैं वैसे विवाहिता स्त्रीका त्याग करना भी पाप मानते हैं । वह मानते हैं कि साक्षात्कार के लिए मनुष्यको निःकामी होना श्रावश्यक है । किंतु निःकामी होनेका उनका मार्ग संयमका है । दमनका मार्ग उन्हें मान्य नहीं । इसलिए वह स्त्रीकी ग्रोर देखनेका जो दृष्टिकोण देते हैं वह निःकाम होने में सहायक है । द्वेष, ग्रवहेलना, तिरस्कार आदि जीवनके स्वस्थः विकासके साधन नहीं हो सकते । वह स्त्रीको जगदम्वाके रूपमें देखनेका उपदेश देते हैं। ब्रह्मचर्य के विषय में चेतावनी देते समय 'परस्त्री सहवास' का उन्होंने ग्रत्यंत भयानक शब्दों में वर्णन किया हैं । उनका कहना है कि काम जीव मात्रकी सहज प्रवृत्ति है । प्रति प्रबल प्रवृत्ति है । एकदम काम जय सहज नहीं है । इसके लिए केवल स्वस्त्री में ही काम प्रवृत्तिको सीमित करके, चर्यका पालन करना स्वस्थ विकासके लिए ग्रथवा प्रवृत्तिसे होने में सहायक होता है । यही इंद्रिय निग्रह तथा काम जयका सामान्य नियम है । ब्रह्मचर्य के साथ उन्होंने इंद्रिय निग्रहके विषयमें भी बहुत कुछ कहा है ।
धीरे-धीरे ब्रह्म-धीरे-धीरे निवृत्त
इंद्रियनिग्रहका अर्थ है इंद्रियों को उनकी सामान्य प्रवृत्तियोंसे निवृत्त करते जाना | इंद्रियों को अपने-अपने विषयोंका श्राकर्षण होता है । और वह स्वाभाविकः है | इसमें कोई अस्वाभाविकता नहीं है । मनुष्य के अलावा दूसरे किसी प्राणी के लिए संयम की श्रावश्यकता नहीं होती । वयोंकि मनुष्य के अलावा अन्य सभी प्राणियों का जीवन निसर्ग नियमानुसार चलता है । किंतु मनुष्य में बुद्धि-शक्तिका अधिक विकास हुआ है । इससे उसका जीवन अधिक कृत्रिम और जटिल हो गया है । इसके लिए संयमकी यावश्यकता होती है । जैसे भोजनके विषयमें । मनुष्यके अलावा अन्य किसी प्राणीका भोजन इतना कृत्रिम नहीं है । मनुष्य के.