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साक्षात्कार
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कहा है । और कठोपनिपमें कहा है, ऐसा मनुप्य निष्काम हो जाता है। निष्पाप हो जाता है। निद्वंद्व हो जाता हैं । उसमें कृतकृत्य होनेका भाव स्थिर हो जाता है । वह अमृतत्वका अधिकारी हो जाता है । उपनिपद्कार तो साक्षास्कारका वर्णन करते थकते ही नहीं। उन्होंने साक्षात्कारके साधन रूप, श्रद्धा तपस्या, शम, दम ब्रह्मचर्य, सत्यनिष्ठा, अहिंसा, एकांतवास, ध्यान, उपासना, सूक्ष्म कुशाग्र बुद्धि, निष्काम कर्म, चित्त-शुद्धि, शांति, स्थैर्य आदि गुणोंकी आवश्यकता बतायी है। ____उपनिषदोंके पश्चात् साक्षात्कारका प्रभावी ग्रंथ गीता है । उसमें साधनाके सभी मार्गोंका सुन्दर समन्वय हुया है। भारतीय तत्व-ज्ञान तथा आध्यात्मिक जीवनपर गीताका अमिट प्रभाव है । गीता भारतीय आध्यात्मिक जीवनका हृदय है। वह साक्षात्कारका तथा उसके सब साधना-मार्गोका निरूपण करनेवाला अप्रतिम ग्रंथ है। गीताके विराट् पुरुपका दर्शन जीवनके सव संशयों का निरसन करता है । संकल्प-विकल्पको नष्ट करता है। और वासना-विकारोंकी उलझनोंको काटकर फेंक देता है । निष्काम होकर स्वभाव-धर्म का पालन करने में प्रेरणा देता है । उस रास्तेपर चलनेवालोंको बल देता है । गीताका अर्जुन बुद्धिमान है । भक्त है। निर्भय है । गूर है । एकाग्र चित्त है। किंतु जब तक साक्षात्कार नहीं होता तबतक वह निर्जीव-सा है । कृष्ण जगद्गुरु है । जगद्गुरुकी कृपा होते ही साक्षाकारकी दिव्य दृष्टि मिलती है । साक्षात्कार होता है । वादमें तुरंत 'नष्टो मोहः स्मृतिर्लव्या' होता है । इसी गीता सर्व-समर्पणका दिव्य मार्ग बताया है । गीता अनेक दृष्टिसे अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है । और साक्षात्कारकी सत्यताकी दृष्टिसे तो प्रमाणभूत ग्रंथ है । वेद साक्षात्कारियों द्वारा कहा गया ज्ञान है। उपनिपदोंका
आदर्श साक्षात्कार है । और गीता साक्षात्कारका प्रमाण-ग्रंथ है । उसके बाद श्रागम ग्रंथ । वह भी साक्षात्कारको अपना आदर्श मानते हैं। किंतु उन्होंने सत्यको सगुण मानकर सत्योपासनाको सर्व सुलभ बनाने का प्रयास किया है । आगम इंद्र, चंद्र, सूर्य, अग्नि, वरुण आदि देवतागों के द्वारा इन सबके मूलमें जो मूल तत्व है उसकी उपासना नहीं करते। उन्होंने अपने इष्टको मानवीय रूप दिया। उसको गुरु माना । माता-पिता माना। स्वामी माना । सखा माना । प्रिय माना । और उसकी पूजा की। उसके अनुकूल रीति-नीति और आचार, विचारका प्रचार किया। इसको भक्ति-मार्ग कहते हैं । इसमें स्मरण, श्रवण, कीर्तन प्रादि नवविध भवितके ढंग बनाये । वात्सल्य-भाव, सखा-भाव, मधुरभाव, दास्य-भाव, अार्त-भाव ये पांच भेद हैं। यह मूल सत्य-पतितके ही महुलाकर फूटे हुए सुन्दर कोंपल हैं। साक्षात्कारका मार्ग अथवा सत्यदर्शनका साधना-पथ पहले एक संकरी पगडंडी थी जिसे ऋषि मुनियोंने अपने तप तथा