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साक्षात्कार
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जानने वाले' अर्थात् ज्ञानी। यह शैव थे। अपने इष्ट देवताकी भिन्नताके कारण इनका यह भिन्न संप्रदाय था-इ० स० चौथी सदीमें पालवरोंके लिखे हुए कुछ तामिल ग्रंथोंको 'द्राविड़ वेद' कहा जाता था। आज भी वह उतने ही महत्वके माने जाते हैं। इ० स० १००० में नाथ मुनिने इनके ४०० ग्रंथोंका संपादन किया था। श्री रामानुजाचार्यका भक्ति-मार्ग इसी परंपराका विकसित रूप है। क्योंकि श्री रामानुजाचार्य श्री यमुनाचार्य के शिष्य थे और श्री यमुनाचार्य श्रीनाथ मुनिके नाती । पद्म पुराण में भक्ति-मार्गके विषयमें लिखा है, 'उत्पन्ना द्राविड़े देशे वृद्धि कर्नाटके गता।' संभवतः यह उक्ति अक्षरश सत्य नहीं होगी। किंतु भक्ति मार्गकी परंपराकी ओर संकेत करने वाली अवश्य है। श्री मध्वाचार्य के बाद कर्नाटकमें वैष्णव भक्तिका प्रचार विशेष रूपसे हुआ। इसका अर्थ यह नहीं कि इसके पूर्व कर्नाटकमें कोई भक्ति-मार्ग नहीं था। किंतु श्री मध्वाचार्य के बाद 'दासर कूट२ नामसे वह विशाल वृक्षकी तरह फैल गया। इससे पूर्व वैष्णव भक्तिका प्रचार था किंतु उसका सविस्तर अथवा सिलसिलेवार इतिहास नहीं मिलता। किंतु तामिलमें जो 'अरिवर' नामका शैव साक्षात्कारका मार्ग प्रचलित था उसका कर्नाटक तथा आंध्रमें पर्याप्त प्रचार हो गया था । श्री अल्लम प्रभु और श्री बसवेश्वरके काल में वह मार्ग समग्र कर्नाटकमें सर्वमान्य था, सर्व प्रिय था। कन्नड़ वचनकारोंके 'त्रिषष्ठि पुरातनरु' तामिल के अनंतरके हैं। इनकी परम्परा का मूल तामिलके 'अरिवर' हैं।
स्वानुभवको ही सत्यकी कसौटी मानकर साक्षात्कार करनेवालोंकी परंपरा भारत के बाहर अन्य देशोंमें भी विद्यमान है । परमात्मा वुद्धि-ग्राह्य नहीं है । श्रुति-ग्राह्य भी नहीं है। ग्रथ- ग्राह्य भी नहीं है। वह तो प्रात्मग्राह्य है । वह वाङ्मनातीत है। वह अनुपम और अवर्णनीय है । यह जैसे हमारे उपनिषद्कारोंने कहा वैसे ही पाश्चात्य प्राचीन दर्शनकारोंने भी कहा है । प्लेटो, प्लूटीनस अादिने भी यही कहा है। सोलहवीं सदीके जर्मन दर्शनकार कांट कहते हैं, 'The thing in itself' । हमारे दार्शनिकोंने 'नेतिनेति' कहा है। वह परमात्माके विषयमें The thing in appearance कहकर चुप हो गया है। किंतु इन दिनों यूरोपमें साक्षात्कारके सत्यका महत्व बढ़ गया है। और वह बढ़ने लगा है। ऐसे प्रश्न अाज पाश्चात्य विचारकोंको सताने लगे हैं कि इंद्रियातीत सत्यका ज्ञान हमें कैसे हो सकता है ? वह हमारी पकड़में नहीं आता है इसलिए उसे छोड़दें, इतना वह हमसे अलग है क्या ? अमेरिकाके प्रसिद्ध दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक प्रो० विलियम जेम्सने एक पुस्तक लिखी है उसका नाम है दि विल टू बिलीव (The will to believe), उसमें वह लिखते
१. एक कीटलका कन्नड़ कोश । २. सेवकोंका मिलन ।