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वचन - साहित्य में नीति और धर्म
पिछले दो व्यायों में तत्व-ज्ञानकी दृष्टिसे वचन साहित्यका विचार किया गया, अथवा वचन - साहित्य में जो तत्व-ज्ञान है उसका विचार किया गया । इस श्रध्याय में नीति और धर्मके दृष्टिकोण से इसका विचार किया जाएगा । श्रथवा वचन - साहित्य में वचनकारोंने जो नीति और धर्म बताया है उसका विचार किया जाएगा। वैसे तो वचनामृत में इस विषय में कहे गये वचनोंसे ही उसका परिचय मिलता है ।
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नीतिका अर्थ व्यक्ति और समाजका संबंध है, और नीति शास्त्र व्यक्ति और समाजका संबंध कैसा होना चाहिए, यह बताने वाला शास्त्र है । नीति शास्त्र में समूह के साथ व्यक्तिका हित कैसे किया जा सकता है इसका विचार किया जाता है ग्रर्थात् एक तरह से नीति, समाज-धर्म है । समाजके सामूहिक श्रभ्युदयका साधन है। किसी भी व्यक्तिका समाज हित विरोधी वर्ताव अनैतिक माना जाएगा। तथा समाजहित के अनुकूल बर्ताव नैतिक श्राचरण । वचनकारोंने इस विषय में अपने कुछ नियम बना लिए हैं । वचनकारोंके नीति-नियमोंका विचार करते समय एक वातको ध्यान में रखना चाहिए कि वह समाज के अभ्युदय के साथ समाजका प्राध्यात्मीकरण चाहते थे । उनका दृष्टिकोण केवल भौतिक नहीं था । उनका अपना ही एक विशिष्ट दृष्टिकोण था । उदाहरण के लिए हम कामिनी और कांचन के विषयमें उनका दृष्टिकोण लें। केवल भौतिक दृष्टिसे विचार करनेवाले लोग कामिनी और कांचनको संपूर्ण रूपसे भोग्य वस्तु मानते हैं । भोगका साधन समझते हैं । श्राध्यात्मवादी उसे त्याज्य मानते हैं । हेय मानते हैं । मायाका जाल मानते हैं । किंतु वचनकारों का दृष्टिकोण इससे भिन्न है । उन्होंने स्पष्ट शब्दोंमें कहा है, " होन्नु मायेयेंवरु, हेण्णु मायेयेंवरु, मण्णु मायेयेंवरु । होन्नु मायेयल्ल हेण्गु मायेयल्ल, मण्णु मायेयल्ल, मनद मुंदरण श्रशेये माये काणा गुहेश्वरा ।" "
वस्तुतः मंगलमय परमात्मा के राज्य में कोई वस्तु अमंगल है ही नहीं । किंतु गलत ढंगसे उपयोग करनेपर अमंगलमय - सी लगती है । कनक और कामिनी त्याज्य नहीं है । उसके विषय में भोगाशा त्याज्य है । अनुचित भोगाशा मायाका परिणाम है । नहीं तो धन सकल पुरुषार्थका साधन है । नारी मानव कुलकी माता है । और धरित्री
१. धनको माया कहते हैं । दारा (स्त्री) को माया कहते हैं । धरतीको माया कहते हैं, धन माया नहीं है । धरती माया नहीं है। नारी माया नहीं है । मनके सामने जो श्राशा है । वही माया है रे गुहेश्वरा ।