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वचन-साहित्य-परिचय
हैं कि साक्षात्कार सत्य है । पारमार्थिक सत्य साक्षात्कारसे अनुभव किया जा सकता है। वह साक्षात्कार हमारी आत्माको होता है। एक बार साक्षात्कार हुप्रा कि वह साधकके जीवन में प्रोत प्रोत हो जाता है । इसके अलावा भी उन्होंने अपनी एक पुस्तक (Varicties of Religious Experience) में पारचात्य राष्ट्रों में अलग-अलग लोगोंने जो साक्षात्कार किया है उन सबके अनुभवोंका विवेचन किया है। इसका विवेचन और संपादन करते समय अत्यंत आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखा गया है। उसी प्रकार मिस एवलीन अंडर हिल (Miss Evelyn Underhill) नामकी विदुषीने अनेक पाश्चात्य साक्षात्कारियों के अनुभवोंका विवेचन किया है। प्रो० राधाकृष्णानजीने अपनी एक पुस्तक (Reign of Religion in Contemporary Philosophy) में पाश्नात्य तत्वज्ञानके विषय में लिखा है । उसमें साक्षात्कारके मार्गका पाश्चात्य तत्वज्ञान पर कसा प्रभाव पड़ा है, इसका अत्यन्त संदर विवेचन किया है। प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक हीगलने लिखा है, 'यात्म-दृष्टिले विचार किया जाए तो विश्व एक छायाकी तरह है। श्रात्म सूर्यसे प्रकाशित दिव्य जानने. अर्थात् ग्रात्म-ज्ञानने देखा जाए तो यह सब सत्यका शांत प्रतिबिंबसा दिखाई देगा।' (Philosophy of Rcligion) इसी प्रकार वडले नामके अंग्रेज लेखकने अपनी पुस्तक {Appearance and Reality) ४४६ वें पृष्ठ पर जो साक्षात्कारका महत्व नहीं जानते, अथवा नहीं मानते उनकी हमी उड़ाते हुए लिखा है, 'साक्षात्कारमें प्रतीत होने वाले सत्य से अधिक प्रत्यक्ष सत्य देखनेकी इच्छा करने वालों को इसका पता भी नहीं है कि वह क्या चाहते हैं ?' कवि ब्राउनिंगने तो अपने अनुभव लिखते हुए कहा है, 'मैंने जाना गने प्रतीत किया...भगवान क्या है ? हम कौन हैं ? यह जीव क्या हैं ? अनंतने अनंतानंद को अनंत मुखी कने अनुभव किया .....यह मैंने जाना। यह मैंने प्रतीत लिया !" ___ यह तो साक्षात्कारीको भाषा है । पश्चिमके बुद्धिजीवी विद्वानों में भी प्राजकल यह धारणा बढ़ने लगी है कि तर्कसे सत्यवो जानना असंभव है। वह अनुभवसे ही जान सकते हैं। पाश्चात्य राष्ट्रोंमें भी प्राचीनकाल में अनेक साक्षात्कारी अनुभावी हो नुके हैं। किंतु वीसवीं सदी के प्रारंभ के साथ आधुनिक विचारकोंने बाध्यात्मिक जीवन में साक्षात्कारका महत्व स्वीकार करना प्रारंभ किया है। अब तक जो साक्षात्कारी होते हैं उनका नाम निर्देश करना भी असंभव है । और उनकी अावश्यकता भी नहीं है । गोरोपमें ईसाई धर्म ही सर्वमान्य है । बही सयंत्र व्याप्त है । उसके पहले जो धर्म ग्रीक और रोग में विद्यमान थे वे ही सब जगह थे। उस समय एसियामें भगवान बुद्धका बौद्ध धर्म प्रचलित