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वचन-साहित्य-परिचय परासंवित् अथवा परशिव अथवा परहंता .
(२) शिव=चित्का प्रकाशरूप (३) शक्ति=चित् का विमर्शा रूप
(४) सदाशिव अथवा सादाख्य तत्त्व) शुद्ध तत्व (५) ईश्वर, (६) सद् विद्या अथवा अथवा शुद्ध विद्या
चित् तत्व
(७) माया, (८) कला, (६) काल, ) शुद्धाशुद्ध (१०) नियति, (११) राग, (१२) विद्या, है तत्व अथवा (१३) पुरुष ।
विद्या तत्व
(१४) त्रिगुणात्मक प्रकृति, (१५) महत् अथवा ) अशुद्ध बुद्धि, (१६) अहंकार, (१७) मन (१८-२२) । अथवा पंचज्ञानेंद्रिय (२३-२७) पंचकर्मेद्रिय (२८-३२) , अचित्
पंचतन्मात्राएं, (३२-३६) पंचमहाभूत । ) तत्व उपरोक्त ३६ तत्वोंकी उत्क्रांतिकी कल्पनाको स्पष्ट रूपसे जान लेना चाहिए । जो एक है वह अनेक होकर भी फिर एक-ही-एक होनेका अनुभव कैसे करेगा? जो एक है वह केवल अपने संकल्पसे (क्रियासे नहीं, अनेक हुआ है। इसलिए उस एकमें किसी प्रकारकी विकृति नहीं पायी। शिवकी माया शक्तिसे, अथवा यावरण शक्तिसे अथवा निगृहन शक्तिसे जीवोंको अनेकता दिखायी देती है। यह दिखायी देनेवाली बात केवल भास है। यह सदसद् विलक्षण और अनिर्वचनीय है । विवर्त है। यह हुआ शंकराद्वैतका मत । किंतु वचनकारोंके अनुसार यह अनुभवमें आनेवाला सत्य है। विवर्त अथवा मिथ्या नहीं है । जिस मूल माया शक्तिसे एकत्त्वमें अनेकत्त्वका अनुभव होता है वह आरणव मल है । प्राणवमलके कारण जीव, अपना शिवभाव खोकर जीवभाव धारण करता है। यही माया है। यह मायामल क्या है ? यह वस्तुरूप है, अतः 'विश्वका कारण है अर्थात् अनेकत्वका कारण है। इसको आरणव मलका स्थूल रूप कह सकते हैं। तीसरा है कार्मिक मल । कर्म अनादि है। वह धर्माधर्म रूप है । जीवके साथ यही तीन मल, आणविक मल, माया मल, तथा कार्मिक मल हैं। इसीलिए मनुष्यको अनेकत्वका अनुभव होता है। इन मलोंका अतिक्रमण करना ही अद्वैत है । इन मलपाशोंका अतिक्रमण करना, अथवा इन मलपाशोंको तोड़ना मुक्ति है । अब तक एकत्व, अनेकत्व, तथा मायाका मुंह देखा परिचय हुआ। अव जीवके स्वरूपका विचार करें।।
इन ३६ तत्त्वोंमें पुरुष नामक जो तेरहवां तत्व है, वह जीव स्थल है।