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साम्प्रदायिक स्वरूप अथवा षट्स्थल शास्त्र : अबतक भागमकार तथा वचनकारों द्वारा वर्णित साधन तुंका, अथवों साधना चक्रका अथवा उपासना पद्धतिका अथवा षट्स्थल शास्त्रका विवेचन हुआ। अब वीर-शैव संप्रदायके प्राचार-विचार देखें।
शिवभक्तको शैव कहते हैं । शैवके लिए शिव ही सर्वोत्तम है । तथा वीरशैव शैव-सर्वोत्तम हैं। सव वचनकार वीरशैव हैं। शैव संप्रदायमें भी भिन्नभिन्न प्रकारकी उपासना-पद्धति चलती है। उपासना-भिन्नताके कारण आगमकारोंने शैवों में भी सात प्रकार माने हैं । उन सबका नाम इसी अध्यायमें अन्यत्र दिया गया है। किंतु कुछ अन्य आगमकारोंने शुद्ध-शैवादि चार भेद ही दिखाये हैं और कभी कुछ भागमोंमें सामान्य-शैवादि पांच प्रकार बताये है। किंतु इस पुस्तकमें केवल वीरशैवोंके आचार-विचारका विवेचन करना है। क्योंकि वचन-साहित्य वीरशैव संप्रदायका धर्मशास्त्र है । वह अन्य शैवोंका विचार नहीं करता। यह पहले ही कहा जा चुका है कि जैसे सब शवोंके लिए शिव सर्वोत्तम है वैसे शैवोंमें वीरशैव सर्वोत्तम है । भारतके 'शैव', 'वैष्णव' तथा 'शाक्त' इन तीनों पंथोंमें 'वीर' उपपदका प्रयोग किया गया है । 'वीर' का अर्थ है 'श्रेष्ठ' । शाक्तोंमें 'वीर साधक' का अर्थ होता है 'रजोगुण प्रधान साधक।' आगमकारोंने 'वीरशैवका निरुक्त “एक एवायमेतस्मिन् सर्वास्मिन् जगनीतयः । विशिष्ट ईयते यस्माद्वीर शैव इत्यभिधीयते ।" ऐसा किया है।
कुछ आगमकारोंने अर्थ किया है कि "भक्ति-वैराग्यमें वीरताका उपयोग करनेवाला वीरशैव है।" वातुलागममें वीरशैवोंके भी सामान्य वीरशैव, विशेष वीरशैव, तथा निराभार वीरशैव ये तीन प्रकार किये हैं। इनमें निराशार सर्वसंग-परित्याग किया हुआ शिवशरण होता है । यदि इसका इष्टलिंग व्रतभंग हुआ तो केवल प्राणत्याग ही प्रायश्चित्त है। अपने व्रतभंगमें प्राणत्याग करनेवाला यह वीरशैव अथवा शैव-वीर । यदि किसीने उसके सामने शिव-निंदा की तो उसकी जुबान खींचने में भी आगा-पीछा नहीं देखता। इसके कारण उसको शिवलोक भी जाना पड़े तो उसको इसकी परवाह नहीं होती। यदि किसी कारण उसके लिए यह संभव नहीं हुआ तो वह स्थान त्याग करेगा, किंतु शिव निंदा नहीं सुनेगा। समय-समय पर आगमकारोंने अनेक प्रकारसे इस शब्द की व्याख्या की है। उन्होंने लिखा है, 'मुक्ति, वीर-शैवोंके हाथकी वात है।' जिसने पाप-पुण्यका अतिक्रमण कर लिया हो वह निराभार होता है।
वीरशैवत्वका अनेक प्रकारका वर्णन मिलता है । यह सव अन्य शैवोंसे इनकी उत्कृष्टता दिखानेके लिए पर्याप्त है । शिवमें समरस होना इनका अंतिम साध्य है । उनकी परिभाषाके अनुसार जीवको अंग और शिवको लिंग माना जाए तो लिंगांग सामरस्य इनका ध्येय है। दीक्षाग्रहणसे इस साधना-चक्रका प्रारंभ