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साम्प्रदायिक स्वरूप अथवा षट्स्थल-शास्त्र
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सीढ़ी पर एक-एक लिंग-गुणको धारण करता हुआ लिगैक्य प्राप्त करता है। जैसे, वह भक्त-स्थल में निरहंकारी बनता है, महेश स्थलमें जानेके बाद उसमें शुचित्व पाता है, प्रसादि स्थलमें वह सुबुद्ध होता है, प्राणलिंगी स्थल में सुमनस्क होता है, शरण स्थलमें सुज्ञानी बनकर वह ऐक्य स्थलमें लिंगमें ‘समरसैक्यका अनुभव करने लगता है। भक्ति ही वीरशैवका मुख्य संवल है। वही उसका आदि, मध्य, और अंतिम साधन है । वचनकारोंने जगह-जगह भक्तके धर्म के नाचरण तथा लक्षणका सुंदर-सजीव वर्णन किया है। इसमें संशय नहीं कि वचनकारोंने शिवागमोंका अनुकरण किया है। उन्हींसे स्फूर्ति और प्रेरणा पायी है। किंतु वचनसाहित्य संस्कृत आगम-ग्रंथोंकी कन्नड़ प्रतिलिपि नहीं है । अनेक वातोंमें उन्होंने अपना स्वतंत्र मत व्यक्त किया है । कई जगह भागमका विरोध भी किया है । जैसे आगमकारोंने वर्णोत्पत्ति, वर्णोका स्थान, चक्र, आदिको बड़ा महत्व दिया है, किंतु वचनकारोंने इन सबको यत्किंचित् भी महत्व नहीं दिया । आगमकारोंने इष्ट लिंगके खो जानेपर अथवा उसके छिन्न हो जानेपर प्राणांत प्रायश्चित्त कहा है, किंतु वचनकारोंने इसका स्पष्ट निषेध किया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दोंमें घोषणाकी है, “इष्ट लिंग न कभी खो सकता न छिन्न-भिन्न हो सकता है ।" आगमकारोंने कुछ हदतक जाति-भेदको माना है। स्त्री तथा शूद्रोंको प्रणवरहित मंत्रोपदेश देनेकी बात कही है। वचनकारोंने यह नहीं माना । उन्होंने स्पष्ट शब्दोंमें कहा है, "लिंग धारणके बाद न कोई ब्राह्मण है, न कोई शूद्र और चांडाल ! सब शिवस्वरूप हैं !" आगमोंमें कहीं-कहीं निष्काम कर्मका महत्व अवश्य कहा है, किंतु उनका 'तंत्र' अधिकतर निवृत्ति-प्रधान है। किंतु वचनकार तो 'कायकमें ही कैलास' कहते हैं ! पूजामें व्यत्यय आया तो वे क्षम्य मानते हैं, किंतु कायकमें आया हुअा व्यत्यय क्षम्य नहीं मानते। वे शिवसे भी यह कहते हुए नहीं डरते, "मुक्ति अपने गलेमें लटका लो, मुझे मेरा कायक ही पर्याप्त है।" इस प्रकार वचनकारोंने अनेक प्रकारसे साधकोंका स्वतंत्र रूपसे और मौलिक पथ-प्रदर्शन किया है। इसलिए कन्नड़-वचन-साहित्य केवल उच्च कोटिका साहित्य ही नहीं रहा, किंतु वह एक रूपसे सबके लिए आवश्यक मोक्ष-शास्त्र ही बन गया है। आध्यात्मिक साधकोंके लिए तो वह साधनाशास्त्र है, जीवनशास्त्र है और पथ-प्रदर्शन में एक आंतरिक प्रकाश है, अंतिम समय तक काम आनेवाला पाथेय है।