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वचन साहित्यका सार - सर्वस्व
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सर्वार्परण अर्थात् सब कुछ उस तत्वको जिसे साधक पाना चाहता हैं अर्पण करके उसकी शरण जाना सर्वोत्तम मार्ग हैं। वचनकारोंने इस तत्वको परशिव कहा है ।भक्तोंने भगवान कहा हैं । योगियोंने परमात्मा कहा है । अर्थात् साधकके लिए. अपना सर्वस्व पर शिव अथवा परमात्मा अथवा भगवान के चरणों में अर्पण करके उनकी शरण जाना साधनाका सर्वोत्तम रूप है । अन्य सब प्रकार की साधनाएं: इसके अंदर ग्राती हैं । अथवा अन्य सव प्रकारकी साधनाएं इस महासाधना की. तैयारी हैं । यही ग्रादिम और अन्तिम साधना है । इसीके अंदर ज्ञान, भक्ति, कर्म,तथा ध्यानका समावेश हो जाता है । वह सर्वारणका ही विविध रूप है । इसलिए वचनकारोंने इन सबका स्पष्ट विवेचन किया है । इसमें संशय नहीं कि साधक सर्वार्पणसे अपनी साधनाका प्रारंभ करता है । किंतु प्रत्येक मनुष्यकी वुद्धिशक्ति, भावनाशक्ति, क्रियाशक्ति, चितनशक्ति आदिका समान विकास नहीं. होता । किसी में क्रियाशक्तिकी प्रधानता रहती है तो किसी में भावनाशक्ति की ।. किसी में वृद्धिशक्तिकी प्रधानता रहती है तो किसी में चिंतनशक्तिकी । मनुष्य मात्र में ये चारों शक्तियां बीज रूपसे अवश्य रहती हैं । किंतु सबमें सबका समान रूपसे विकास हुआ नहीं रहता । इसलिए प्रत्येक साधक अपनी उसी शक्तिका अधिक उपयोग करेगा जो अधिक विकसित हो । उपरोक्त चार साधना मार्गों के लिए इन चार शक्तियोंकी आवश्यकता रहती है । क्रमशः ज्ञान-मार्गके लिए बुद्धिशक्तिकी श्रावश्यकता होती है । भक्ति मार्गके लिए भावनाशक्तिकी श्राव-श्यकता होती है । कर्म • मार्ग के लिए क्रियाशक्तिकी आवश्यकता होती है और ध्यान - मार्ग के लिए एकाग्र चिंतनशक्तिकी । जिस साधकमें जिस शक्तिका अधिक विकास हुआ है वह साधक उस प्रकारका साधना-पथ चुनता है । सर्वार्पण किए : हुए साधक में कोई ज्ञानमार्गी हो सकता है तो कोई भक्तिमार्गी । कोई कर्ममार्गी हो सकता है तो कोई ध्यानमार्गी । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि सर्वार्पण किया हुआ शरण-साधक अपनी अन्य किसी शक्तिका कोई उपयोग करेगा ही नहीं । वह ग्रन्य शक्तियों का उपयोग भी करेगा, किंतु विशेष रूपसे वह अपनी सर्वाधिक विकसित शक्तिका उपयोग करेगा । इसलिए इन सव मार्गों का संक्षेपमेंविचार करना आवश्यक है ।
किसी मनुष्य में जो शक्तिपुंज होता है इसका विश्लेषरण किया जाय, प्रथवा पृथक्करण किया जाय तो उसमें पांच प्रकारकी शक्तियां होती हैं । (१) प्राणशक्ति, (२) क्रियाशक्ति, (३) चिंतनशक्ति, अथवा ध्यानशक्ति, (४) भावना-शक्ति, तथा (५) वृद्धिशक्ति | ये सब शक्तियां स्वतंत्र नहीं हैं । ये परस्पर संबन्धित होती हैं । परस्परावलंबी हैं । जैसे मनुष्य की आंख, नाक, कान जिह्वा, त्वचा आदिश्रवयव, देखने में अलग-अलग हैं । किंतु ये सब एक ही शरीर के ज्ञानके उपादान
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