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वचन-साहित्य-परिचय
अधिकसे अधिक सुख मिलेगा? इसकी खोज अथवा इसका अनुसंधान ज्ञान-विज्ञानका अनुसंधान है । अलग-अलग तत्ववेत्ताओंने अलग-अलग बातें कही हैं। जिन्होंने उस तत्वको जाना है, उनको तत्ववेत्ता कहते हैं । उन्हींको दार्शनिक भी कहते हैं। क्योंकि उन्होंने उस तत्वका दर्शन किया है। इन दार्शनिकों से कुछने कहा है कि एक अदनेसे मिट्टीके करणसे लेकर प्रासमानमें चमकनेवाली विद्युत् तक सब जड़ ही जड़ है । तो कोई कहते हैं इस विश्वका अशु-मरण और करण-कण चैतन्यमय है । दिव्य है। इसी वातको लेकर कई दार्शनिकोंने कई दर्शन लिखे हैं । ऐसे दार्शनिक भारत में ही नहीं विश्व के सभी देशों में हुए हैं । सभी काल में हुए हैं। सभी दार्शनिकों के सब प्रयत्न अत्यंत निष्ठासे हुए हैं। प्रामारिणकतासे हुए हैं। तथा अत्यंत उत्कटतासे हुए हैं। किंतु प्रश्न यह उठता है कि दार्शनिकोंने जो अपने दर्शनकी नींव डाली है उसके अाधारभूत साधन क्या हैं ? मनुष्य के पास सत्यको जानने के दो प्रकारके साधन हैं । वे हैं, पंच ज्ञानेंद्रिय और अंतःकरण । दृश्य-जगत्का सव ज्ञान इन्हीं पंचेन्द्रियोंसे होता है । और अंतःकरणको उस परम तत्वका अनुभव होता है जिस अनुभवके लिए मानव व्याकुल है । मानवका मन अथवा अंतःकरण एक अखंड शक्ति है । किंतु वह त्रिमुखी है। बुद्धि, भावना और स्फूर्ति यह उसके तीन मुख हैं। इसका अर्थ इतना ही है कि मानव मन जब तर्क प्रधान होता है तब वुद्धि कहलाता है। जब श्रद्धा प्रधान होता है तव भावना कहलाता है । और जब दर्शन प्रधान होता है स्फूर्ति कहलाता है। ज्ञात बातोंसे अज्ञात वातोंका निर्णय करना तर्क कहलाता है। ज्ञात अथवा अन्य किसीकी वही हई बात पर सम्पूर्ण विश्वास करना श्रद्धा कहलाता है । और जो तर्क और श्रद्धासे भी परे है, इन साधनोंसे हृदयंगम नहीं होता, किंतु जो यकायक अंतःचक्षुषों के सामने आ जाता है, अथवा मनको सूझता है उसे स्फूर्ति कहते हैं । मानव मनकी ये तीन शक्तियां हैं । इन शक्तियों के आधार पर कोई बात जाननेके तीन साधन माने गये हैं । वे हैं अनुमान, प्राप्तवाक्य और प्रत्यक्ष । बुद्धिसे अनुमान होता है । प्राप्तवाक्य पर श्रद्धा वैठती है और स्फूर्तिसे ज्ञान प्रत्यक्ष होता है । ज्ञानकी ये तीन कसौटियां हैं । यह प्रत्यक्ष जब दृश्य-जगत्का विषय होता है अांखों पर निर्भर रहता है । और जब अदृश्य विश्वसे संबंध रखता है तव स्फूर्ति पर निर्भर रहता है। यही स्फूर्ति सत्यके साक्षात्कारकी आधार शिला है ।
अब तक मनुष्यने जो साक्षात्कार किया है उसका यह रूप है। अब यह देखना रह जाता है कि वचन कारोंके साक्षात्कारका क्या रूप है ? वह सत्यकी खोज में कहां तक सफल हुए हैं ? उनको सत्यका साक्षात्कार कैसे हुया ? इस कार्य में वह कहां तक सफल हो सके ? इन प्रश्नों के उत्तरमें कहा जा सकता है कि