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साक्षात्कार
कन्नड़ भाषा-भाषी लोगों में संतोंको अनुभावी कहने की परिपाटी है और उनके मार्गको अनुभावी मार्ग | कर्नाटक के संतोंका दो प्रकारका वर्गीकरण किया जाता है : 'शिवशरणरु' और 'हरिशरण रु' । शिवभक्तों को 'शिवशरणरु' कहते हैं । हरिभक्तोंको 'हरिशरणरु' कहते हैं । शिवशरणोंको वचनकार कहते हैं । क्योंकि उन्होंने वचन शैली में अपनी बातें कही हैं । हरिशरणोंको कीर्तनकार कहते हैं । उन्होंने कीर्तन ( भजनों) के रूपमें अपनी बातें कही हैं। ऐतिहासिक दृष्टिसे देखा जाए तो शिवशरण पहले हुए हैं और वादमें हरिशरण । इन दोनों तरह के संतों के साहित्यको शरण- साहित्य भी कहते हैं, क्योंकि कर्नाटकके लोगोंका विश्वास है कि वे दोनों भगवानकी शरण गये थे । उनको परमात्माका अथवा सत्यका साक्षात्कार हुआ था । उन्होंने सत्यका अथवा परमात्माके साक्षात्कार का अनुभव किया था । इसलिए वे अनुभावी हैं । जब मनुष्य जंगली स्थिति में था, शिकार करके खाता था, तवसे वह सत्यकी खोज करता आया है | मनुष्य विश्वकी विविधता, उसका सौंदर्य आदि देखकर चमत्कृत होता है । यह सव चमत्कार देखकर वह दिङ्मूढ़ हो जाता है। किंतु वह अधिक समय तक ऐसा नहीं रह सकता । वह इन सबका रहस्य जानना चाहता है । यह विविधतापूर्ण विश्व इतना सुंदर क्यों है ? इसका रहस्य क्या है ? इस सुंदरता के परे क्या है ? यह सौंदर्य किसका प्रकाश है ? उसकी जिज्ञासा जागती है । वह इस जिज्ञासाकी तृप्ति चाहता है । उसके लिए सोचता है । चिंतन करता है । प्रयोग करता है | चितन और प्रयोग, इन दो पैरोंसे वह इस विविध विश्वकी विविधता और सुंदरताकी तहमें जो सत्य है उसकी ओर बढ़ता है। इस सत्पथको संत-मार्ग कहते हैं । इस सत्पथपर चलकर उन्होंने जो कुछ पाया उसको किसीने सत्य, किसीने परमात्मा, किसीने ब्रह्म और किसीने और कुछ कहा | अनेक लोगोंने अनेक नाम दिये । अनेक प्रकारसे कहा । किंतु जिनजिन लोगोंने वह पाया, उन सबका कहना है कि उसके परे और कुछ नहीं है । मानवीय मन दृश्यसे अदृश्यको प्रोर दौड़ने लगता है । दृश्यमेंसे अदृश्यमें पैठता जाता है । इस दौड़ में थककर वह ऐसी जगह बैठ जाता है जहाँसे न आगे बढ़ना संभव रहता है न पीछे लोटना । उसी स्थानको अनुभावियोंने परमात्मा कहा । उसीका वर्णन किया । श्रौर घोषरगाकी इसके परे कुछ है ही नहीं । अनादि और अनंत दोनों इसके अंदर आ जाते हैं । जिन्होंने इस अंतिम तत्वका अनुभव किया उनको 'अनुभावी' कहते हैं । इस अंतिम तत्व के अनुभवको
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