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वचन-साहित्यका सार-सर्वस्व होता तबतक उसके किसी कर्मका दायित्व उसपर नहीं होता । जैसे किसी बच्चेने कोई भला-बुरा काम किया तो उसका कोई दायित्व उस बच्चे पर नहीं होगा। इस विश्वमें आनेवाले कई जीवोंको पाप और पुण्यकी कल्पना भी नहीं होती होगी। ऐसे जीवोंपर पाप या पुण्यका कोई दायित्व नहीं है । क्योंकि उनको अपनी स्थितिका ज्ञान.और भान नहीं होता । अपने दायित्व को उठानेके लिए इस ज्ञान अथवा भानकी अत्यंत आवश्यकता होती है । इसका यह अर्थ नहीं है कि उन्हें अपने कर्मका फल नहीं भुगतना पड़ेगा। किंतु वह स्वतन्त्र कर्ता नहीं है । वे बंधनसे मुक्त होने योग्य नहीं है। अपनी मुक्ति के लिए आवश्यक कर्म करनेकी योग्यता उसमें नहीं आयी। इसके लिए उसको अपने वारेमें, अर्थात् मैं कौन हूँ. इसका ज्ञान होना अनिवार्य है। एक बार यह ज्ञान होनेके बाद ही जीवको अपनी वृद्धावस्थासे मुक्त होनेके लिए आवश्यक कर्म करनेका अधिकार प्राप्त होता है। तभी वह स्वतन्त्र का होता है। उसमें भले-बुरेका तारतम्य ज्ञान. . प्राता है । सदसद्-विवेक बुद्धि जागृत होती है। अपने वौद्धिक निर्णयके बाद, उस निर्णयके अनुसार, विषयासक्तिकी अोर हेय-भाव निर्माण होता है और मुक्तिकी आकांक्षा महुलाने लगती है। अहंकार, काम, क्रोध आदि धीरे-धीरे गलने लगते हैं । वह निष्काम होता जाता है । वह प्रार्थना करने लगता है, 'इस संसार चक्रसे मुक्त करो।' वह अकुलाता है कि सुखका दर्शन होते ही दुःखका प्रारंभ होता है । मेरी स्थिति साँपके फनकी छायामें वसे मेंढककी-सी हुई है। मेरी स्थिति शेरके सामने बांधकर रखे हुए हरिणकी-सी है। अब मेरी रक्षा करो। उसकी यह अकुलाहट अत्यंत तीव्र होती है । इन्द्रियजन्य सुखमें उसे कोई आनंद आता ही नहीं । इन्द्रियजन्य सुख उसकी अकुलाहट बढ़ानेमें ही सहायक होते हैं । तब वह वास्तविक अर्थ में भगवत्स्मरण करने लगता है। उसमें नित नयी जिज्ञासा जागती है । मैं कौन हूँ ? कहांसे पाया ? कहां जाना है ? यह जिज्ञासा ही आत्मज्ञानकी जननी है। ___इस जिज्ञासासे उत्पन्न होनेवाला प्रात्म-ज्ञान ही मुक्तिका संवल है । वही मुक्ति का साधन है । और यह मुक्ति ही मानवीय जीवनका अंतिम ध्येय है । यही मुक्ति शाश्वत सुख है, इसमें दो मत नहीं हैं । इस पर सभी एकमत हैं, सभी एक कंठसे इसे स्वीकार करते हैं कि अनुकूल संवेदना ही सुख और प्रतिकूल संवेदना ही दुःख है । किंतु सुख-दुःखमें भी तरतम भाव है । एक पशुके आनंदसे मनुष्यका आनंद उच्च कोटिका है । सामान्य मनुष्यके आनंदसे विद्वान्का आनंदः उच्चतर है। और विद्वान्के आनंदसे निष्काम अानंद उच्चतम है । जैसे-जैसे जीवका विकास होता जाता है वैसे-वैसे आनंदकी कल्पना भी बदलती जाती है । चतुष्पद पगु इन्द्रियजन्य सुखमें मग्न रहता है । उसका मन अन्य किसी संस्कारसे