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वचन-साहित्यका सार-सर्वस्व पिछले अध्यायोंमें वचन साहित्यके बहिरंगका दर्शन किया। वचनोंका साहित्यिक रूप देखा । वचनकारोंके सामूहिक कर्तृत्व और व्यक्तिगत जीवनकी झलक पाई। उनकी उपासना-पद्धतिका अवलोकन किया। साधना-चनका अध्ययन करके अंतरंगमें प्रवेश पाया। मनुष्य किसी वस्तुका बाह्य सौंदर्य देख कर चमत्कृत होता है। फिर उस सौंदर्यके पीछे, उस सौंदर्य के उस पार, अथवा उस सौंदर्यके मूलमें जो तत्त्व है, जो सार-सर्वस्व है उसको खोजनेका प्रयास करता है। यही तो मनुष्य-प्राणीकी विशेषता है। वचन-साहित्यके वहिरंगके विहंगावलोकनके बाद, उसके अंतरंगमें बैठकर उसके सार-सर्वस्वको पानेका प्रयास करना स्वाभाविक है।
यह पहले ही कहा जा चुका है कि कन्नड़-वचन-साहित्य वीरशैव संप्रदायका धर्म-शास्त्र है। कर्नाटकमें उसको आदरके साथ "वचन-शास्त्र" कहा जाता है । इस पुस्तकमें उसे वचन-साहित्य कहा है। शास्त्र नहीं कहा है । क्योंकि वचनोंकी ओर देखते समय, अथवा उनका चयन करते समय सांप्रदायिक दृष्टिकोण नहीं रखा है । अपितु साहित्यिक दृष्टिकोण रखा है । जैसे किसी विद्वानूने कहा है, "साहित्य मानव-जीवनका विज्ञान है । मानव-जीवनके अन्यान्य पहलुओंका विवेचन-विश्लेषण करके मनुष्यको दिव्यत्वकी ओर अग्रसर होनेमें प्रेरणा और स्फूर्ति देना उसका उद्देश्य है।" वचन-साहित्य इस कसौटी पर खरा उतरता है। इसीलिए उसको साहित्य कहा है। और भी एक बात है। विद्वान् लोग कहते हैं कि साहित्य जीवनका अनुभव है, और वचनकार किसी भी बातको अपने स्वानुभवसे अधिक महत्व नहीं देते थे। वह ऐसी किसी बात को स्वीकार नहीं करते थे जो उनके स्वानुभवकी कसौटी पर खरी न उतरती. हो । शास्त्रमें कही हुई वातको भी वह अपने अनुभवकी कसौटी पर कसते थे । और उसको तब तक स्वीकार नहीं करते थे जब तक उनके अनुभव में नहीं आती थी । इसीलिए उन्होंने अपने संघटनका ही नाम 'अनुभव-मंडप' रखा था । भी संप्रदायोंमें गुरुका महत्वपूर्ण स्थान है। आध्यात्मिक जगतमें गुरुको ऊंचा स्थान दिया गया है। वीरशंव तो गुरुको शिवका ही रूप मानते हैं । शिवकी तरह गुरुकी पूजा करते है। उनका पादोदक भी बड़ी श्रद्धासे लेते हैं। किंतु उन्होंने लिखा है, "अपने आपको जाना तो वह ज्ञान ही गुरु है," "अनुभव ही गुरु है" अर्थात् वह अपने अनुभवको सबसे अधिक महत्व देते थे। और साहित्य जीवनका अनुभव है, अथवा अनुभव ही साहित्य है । वचन-शैलीमें कहा गया