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वचन - साहित्य-परिचय
इसका अनुभव अनिर्वचनीय है । अवर्णनीय है । क्योंकि वह शब्दातीत है । वहां ज्ञाता, ज्ञान, तथा ज्ञेयकी त्रिपुटीके अद्वैतके कारण भाषा मूक हो जाती हैं । इसका वर्णन करते समय वचनकारोंने कहा है, 'गूंगे के देखे हुए स्वप्न -सा ' ।' इस अनिर्वचनीय स्थितिका जो वर्णन होगा वह गूंगे के स्वप्नका अभिनयात्मक वर्णनसा होगा । यह अभिनयात्मक वर्णन ही भिन्न-भिन्न दर्शन हैं । ग्राजकी दार्शनिक अथवा तत्त्वज्ञान विषयक मत - भिन्नता इस अभिनयात्मक वर्णनके भिन्नभिन्न अभिनयका परिणाम है । इस अभिनय भिन्नता के कारण अनेक प्रकारके दर्शन हुए हैं । तर्क की कसोटी पर, ग्रथवा तर्ककी दृष्टिसे यह सब अलग लग होने पर भी ग्राध्यात्मिक अनुभवकी भूमिका पर सब एक हो जाते हैं ।
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कन्नड़ वचनकारोंने जिस प्रकार के तत्त्वज्ञानका आसरा लिया है उसको शिवाद्वैत, अथवा विशेषाद्वैत, प्रथवा शक्ति - विशिष्टाद्वैत, अथवा कहीं-कहीं 'शिवयोग' भी कहा है । इस अद्वैत में शिव ही आत्यंतिक तत्त्व है, इस लिए इसे शिवाद्वैत कहते हैं । यह विशेष प्रकारका अद्वैत है इस लिए इसे विशेषाद्वैत कहते हैं । तथा शिव ही इस सिद्धांतका परम दैवत है इस लिए शिवयोग और शक्ति से विशिष्ट प्रकार के अद्वैतानुभव होनेसे शक्ति - विशिष्टाद्वैत कहते हैं । नाम अनेक प्रकारके होने पर भी तत्त्वज्ञान 'ग्रद्वैत' है । इसमें त्रिकालाबाधित सत्य-तत्त्व एक ही है । उसको 'पर शिव' 'परासंवित' अथवा 'पराहंता' आदि कहते हैं । वेदांतियोंने इसको परमात्म परब्रह्म, अथवा पुरुषोत्तम श्रादि कहा है । उस सर्वातीत तत्त्वको वचनकारोंने "वह न सगुरण न निर्गुण, न सकल न निःकल" आदि कहा है । वस्तुतः सगुरण, निर्गुण यादि शब्द द्वंद्व सूचक हैं, सापेक्ष सृष्टिके हैं और 'वह' निरपेक्ष है । एकरस है । सर्वसम है । जहाँ गुरणकी कल्पना भी नहीं की जा सकती वह सगुण अथवा निर्गुरण है, ऐसा कैसे कहें ? वहाँ ऐसे शब्दों के लिए स्थान ही कहां ? पर शिव केवल निरपेक्ष है । अतीत है । प्रवेद्य है । फिर भी समझाने के लिए 'वह' शब्दकी पोशाक पहनता है । तब वचनकार उसे निरालंब, निरवय, अगोचर, निर्लेप, निरंजन, शून्य निःशून्यके परेका, अज्ञेय, नाद बिंदु कालातीत, विश्वातीत, चैतन्य मय, ज्योतिर्मय श्रद्वय श्रादि कहते हैं । कितना ही क्यों न कहें, समग्र शब्द-कोश क्योंन खर्च करें 'वह' अवर्णनीय ही है ।
इसपर प्रश्न यह उठता है यदि 'वह' श्रद्वय है, अतीत और निर्द्वन्द्व है, एक रस तथा निःकल है तो इस विश्व में दिखाई देने वाला यह नानात्व अथवा अनेकत्व कैसे ? दूसरे शब्दों में कहना हो तो 'एकरस परशिव' से 'अनेक रस' विश्व कैसे उत्पन्न हुग्रा ?
१. मूक कंड कनसिनंते ।