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साम्प्रदायिक स्वरूप अथवा षट्स्थल-शास्त्र साधकके अगले स्थलपर जाने पर भी पिछले लक्षण नष्ट नहीं होते। उदाहरण के लिए ऐक्य प्राप्त साधक भी गुरुपूजा, जंगमपूजा आदि करते रह सकता हैं। यह सब शक्य होनेसे ६ स्थलोंसे अधिक स्थलोंकी कल्पना करना संभव हो सका है। इन सब स्थलोंके विषयमें वचनामृतके 'षट्स्थल-शास्त्र' नामके अध्यायमें इससे अधिक विस्तारके साथ विवेचन किया गया है। इस लिए यहाँ उन बातोंका अधिक विस्तार नहीं किया गया। किंतु आगमकारोंके इन छ: स्थलोंके आधार पर वचनकारों ने १०१ स्थल और २१६ स्थल दिखानेका प्रयास किया है।
(१५) तंत्रमार्गसे साधना करने वालोंको सर्वप्रथम 'दीक्षा' लेनी अत्यन्त आवश्यक होती है, जैसे वैदिक-धर्म में उपनयन अथवा जनेऊकी आवश्यकता होती है। जब दीक्षा लेना आवश्यक है, तब दीक्षा देने वाले गुरुकी भी आवश्यक्ता है । ____ दीक्षा देते समय लिंगपूजार्थ गुरु लिंग देता है । उसको 'इष्टलिंग' कहते हैं। इस दीक्षा-विधिका विवेचन करते समयं आगमकारोंने लिखा है, "दीयते लिंग संबंध: क्षीयते कर्म-संचयः ।" (सू०प० ८ २लो० ८)। साधकके दीक्षित होने पर ही परमार्थ साधनाका प्रारंभ होता है । वीरशैव दीक्षा-विधिमें लिंग धारण
और "ओं नमः शिवाय” इस षडक्षरीका उपदेश महत्वका होता है। शिवदीक्षा के अलावा लिंगधारण न करने का आदेश है । (पा० प० १ श्लो ७४) ।
जैसे इष्टलिंग, प्राणलिंग तया भावलिंग लिंगके विविध प्रकार हैं वैसे ही दीक्षाके भी त्रिविध प्रकार हैं। उन्हें क्रिया, शिक्षा तथा वेद्या कहते हैं। साधकके साधना जीवन में दीक्षा, शिक्षा और अनुभाव, ये तीन सीढ़ियां हैं। गुरुसे उपदेश, लिंगादिका ग्रहण करना 'दीक्षा' है । जीव-शिव संवन्धके विषय में बौद्धिक ज्ञान प्राप्त करना 'शिक्षा' कहलाता है। आगे सतत साधना द्वारा उस बौद्धिक ज्ञानका अनुभव प्राप्त करना 'अनुभाव' कहलाता है । (सू०- .. प०८ श्लो० ७-१० ।
दीक्षा देनेवाले गुरुके विषयमें आगमकारोंने लिखा है कि गुरु निरहंकारी, सत्यवचनी, शांत, निर्मत्सर, केवल स्वदारानिरत, संप्रदायविशेषज्ञ, इंगितज्ञ,
आत्मज्ञ, सदाचार संपन्न, वाग्मि, शिवतत्वार्थ-बोधक गंभीर तथा करुणामय होना चाहिए । गुरुके विषय में लिखते समय सूक्ष्म, पारमेश्वर, वातुल आदि आगमोंमें बहुत ही विस्तारके साथ विवेचन किया है । शिव वचन है, "मैं स्वयं गुरु वनकर शरणागत भक्तोंका उद्धार करता हूँ।" (सू० ५० ५ श्लो० १० ।
इसीलिए शिवागमांतर्गत साधना-क्रममें गुरु-कृपा, शिव-कृपाकी भाँति महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
आगमकारोंकी दृष्टिसे साधक होने के लिए अथवा दीक्षित होने के लिए विशिष्ट जाति, वर्ण, लिंग, आयु आदिका कोई बंधन नहीं है। आगमकारोंने