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वचन साहित्य- परिचय
की गहराई में जाने से पूर्व हमें यह जान लेना आवश्यक है कि वचन - साहित्यकी नींव पवित्र आत्माओंके स्वानुभव पर निर्भर है । इसलिए उनकी उपासनापद्धति, उनकी साधना-पद्धति आदि अन्य लोगोंसे भिन्न होने पर भी यह वचन समग्र मानव कुलके लिए एक-से पवित्र हैं तथा उनका ध्येय भी सम्पूर्ण मानवजाति के लिए समान आदरणीय और अनुकरणीय है । शिव शरणोंने उपासना के लिए 'षट्स्थल' मार्ग अपनाया है । इस ग्रध्यायमें पदस्थल- शास्त्रका ही विवेचन किया गया है ।
पट्स्थल-शास्त्रको समझने से पहले और एक वातको ध्यान में रखना आवश्यक है । और वह वात यह है कि शिव शरणों की उपासना पद्धति श्रवैदिक नहीं है। इसमें संशय नहीं कि वचनकार स्वानुभवको ही अधिक महत्व देते थे । साक्षात्कारको ही प्रमाण मानते थे । उन्होंने समय-समय पर वेद, उपनिषद्, आगम, शास्त्र, पुराग प्रादिका भी विरोध किया है । वचनामृत में ऐसे वचन भी आये हैं । फिर भी उनका आचार-विचार, तत्त्वज्ञान सब कुछ शैवागमों की सीमा अन्दर है । शैनागम और वचन शास्त्रका अन्योन्य सम्बन्ध है । इतना ही नहीं, वचन शास्त्रका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रेरणा स्रोत भी शैवागम हैं। ऐसा कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । शैवागम हो वचनकारोंका स्फूर्तिस्थान है । वही उनकी प्रेरणाका मूल है । और उनके पारिभाषिक शब्द भी वही हैं जो शैवागमोंमें ग्राये हैं । 'शैव सिद्धांत परिभाषा' में लिखा है, "श्रूयते हि वेदसार: शिवागमः ।" किंतु वचनकारोंने इसमें देश, काल, परिस्थिति के अनुसार ग्रावश्यक परिवर्तन कर लिया है। और यह किसी भी सजीव साधनापद्धतिको विशेषता होती है । गीतामें इस प्रकारका परिवर्तन मिलता है । वैदिक काल में ग्रग्निद्वारा होम-हवन होता था । अग्नि में अन्यान्य वस्तुनोंकी
हुतियाँ पड़ती थीं । इसीको यज्ञ कहा जाता था । किंतु भगवद्गीता में यज्ञकी कल्पना में परिवर्तन पाया जाता है । गीतामें ग्रात्म संयम, प्राणायामादिको भी यज्ञ कहा गया है । उनकी भी उतना ही महत्त्व दिया गया है । इन सव क्रियाकलापोंको उतना ही पवित्र माना गया है । अर्थात् यह परिवर्तनकी परम्परा भी वचनकारोंकी अपनी नहीं है । यह हमारी पूर्व-परम्परा रही है ।
वचन - साहित्यका मूल, अथवा वचनसाहित्यकी परम्परा शैवागमोंके द्वारा वेदतक पहुंचती है । किंतु वचन साहित्यका सीधा संबंध वेदसे नहीं है । वह शैवागमों तक सीमित है । यहाँ यह एक प्रश्न उठता है कि शैवागम श्रथवा अन्य किसी आगमका वेदोंके साथ क्या संबंध है ? यह महत्वपूर्ण प्रश्न है । किंतु इस पुस्तकका इस प्रश्नसे कोई सम्बन्ध नहीं । यहाँ इतना जान लेना पर्याप्त है कि शैवागम तथा ग्रन्य कोई भी ग्रागम वेद विरुद्ध नहीं है तथा वह