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वचन-साहित्य-परिचय (१०) आगमकारोंके कथनानुसार साधकको ईर्ष्या, पिशुनत्त्व, दंभ, राग, मत्सर, काम, क्रोध, लोभ, भय, शोक छोड़ना चाहिए। द्वन्द्वातीत बनना चाहिए । निर्द्वन्द्व होना चाहिए । निर्द्वन्द्व व्यक्ति ही ज्ञानी हो सकता है (दे० का०. ज्ञानाचार प० श्लो० ७७-७८) । उसी प्रकार साधकको क्षमा, शान्ति, सन्तोष, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, वैराग्य, सर्वसंग-निवृत्ति आदि गुणोंकी आवश्यकता बताई गई है (पा० ५० १२ श्लो० १०३-१०४) । ___ उसी आगममें और एक जगह (प० १५ श्लो० १५-१६) सत्व, भूतदया, अहिंसा, शम, दम, उदारता, भक्ति, गुरु-सेवा आदि गुणोंकी आवश्यकता बताई गई है।
ऊपरकी पंक्तियों में साधकका सामान्य धर्म वताया गया है, आगे सगुण ध्यान, पूजा-जाप आदिका विचार करें।
(११) शिवागमकारोंकी दृष्टि से शिवही सर्वोत्तम है। लिंग ही शिवका .एकमेव प्रतीक है । 'त्रों नमः शिवाय' यह षडक्षरी जाप है । शिव निराकार है । निर्गुण हैं । किंतु ध्यान-पूजामें वह सगुण होता है । इसलिए वह पूजामें, ध्यानमें , सगुण निर्गुण है । फिर भी इन दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है (सू० पा० श्लो ३३-३४) ।
लिंग परब्रह्म' है। साक्षात् शिव ही पूजार्थ लिंग रूप धारण करता है। 'लिंग' शिवशक्त्युभयात्मक है। लिंगकी ही पूजा करनी चाहिए इसीका ध्यान करना चाहिए। यही 'भुक्ति-मुक्ति' देनेवाला है। लिंगके स्वरूपका विचार किया जाय तो वह निरामय, निराकार, निर्गुण, निर्मल, शिव-मंगलमय, ज्योतिमय, निरालंव, सर्वाधार, सर्वकारण, अनुपम, केवल, सच्चिदानन्द लक्षण है। (सू० ५० ६ श्लो० ४-११)।
लिंग तीन प्रकारका होता है । (१) दीक्षाके समय गुरुके द्वारा दिया जाने वाला 'पार्थिव लिंग' उसे 'इण्ट लिंग' कहते है । (२) गुरुका दिया हुआ 'पार्थिव लिंग' अथवा 'इष्ट लिंग' और साधकके प्राणमें स्थित 'प्राणलिंग' एक ही है इस भावसे स्थित लिंग 'प्राणलिंग' कहलाता है (३) इस लिंगमें व्यानस्थ होनेसे साधक की मनोवृत्तियां लीन हो जाती हैं । तब वही 'भाव लिंग' कहलाता है । एक ही एक भावसे इन तीनोंकी पूजा करनी चाहिए, । (सू०प० ६ श्लो० ५४-५८)।
शिवलिंगके लिए शिला ही सर्वोत्तम है। शिला-लिंग सर्वसिद्धिकारक है । किंतु भिन्न-भिन्न धातुओंके भिन्न-भिन्न परिणामोंका भी संकेत है ।
लिंग धारणके लिए गला, वक्षस्थल, कर स्थल, आदि उत्तमाँग कहे गये हैं। १. तस्मात लिंग परब्रह्म सू० ५० ६. श्लो० २४ । २. नादरूप शिव+विंदुरुप शक्ति शिवलिंग है।