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वचन साहित्य परिचय
मानने के लिए पर्याप्त प्रमाण हैं । एक जगह पूछते हैं, "प्रतीक पकड़कर बैठने में क्या स्थिरता है ?" इसका स्पष्ट अर्थ होता है, "इष्टलिंग पूजाकी क्या श्रावश्यकता है?" और इष्टलिंगको पूजा शैव दीक्षाका श्रीगणेश है । इन सब बातों से यह सिद्ध होता है कि सिद्धरामय्याने कल्याण में श्राकर चन्नवसवसे दीक्षा ली थी । अपने वारेमें कहते समय इन्होंने एक जगहपर कहा है, "मुझे योगसिद्ध हुआ है । योगी हो तो मुझ जैसा हो !" और ग्रल्लम प्रभुने भी उनके लिए कहा है, "सत्य जानकर उसमें स्थिर शिवयोगी "
सिद्धरामय्या ही एक ऐसे वचनकार हैं कि जिनके वचनोंमें अन्य अनेक वचनकारोंके नाम और कुछ-कुछ जानकारी मिलती है । उनके प्रकाशित वचन ८५१ हैं । इससे बहुत अधिक वचन प्रकाशित पड़े हैं। उनके वचनों में आया है, भिन्न-भिन्न प्रसंगों में ग्रल्लम प्रभु, ग्रादय्या, नीलोपत्रे, गंगाविके, ग्रक्क नागायि, मडिवाल माचय्या, हडपदप्पण्ण, मरुलसिद्ध, वसवण्णु, चन्न वसवण्ण, सकलेशमादरस, निजगुणी, वृशभयोगेश्वर, शिवनागय्य, हाविनय्यहाल कल्लन य बोम्मण्ण, कुंवारमुंडय्य, यादि अनेक वचनकारोंके १६० करोड़ वचन हैं | साथ-साथ इन्होंने यह भी लिखा है कि अल्लम प्रभु तथा इन नामों में से पहले के आठ लोगोंने १,६३,११,३०,३०० वचन लिखे हैं ।
इनका कहना है कि वेद, उपनिषद, पुराण, शास्त्र आदि वचनोंकी वरावरी नहीं कर सकते । वचनोंका अनुभाव अनिर्वचनीय होता है । विना अनु भावके वचन कहनेवाला पिशाच है । सत्यको जानकर कहनेवाला ही संस्कारी पुरुष है।
इनका कहना अत्यन्त स्पष्ट होता है । इन्होंने वचन शैली में जगदंबा स्तोत्र की भी रचना की है । इनकी तरह ग्रन्य किसी वचनकारने शक्तिकी उपासना की हो, ऐसी कोई जानकारी नहीं मिलती ।
इन्होंने उपनिषद्कारों की तरह श्रोम के अवयवोंकी सुंदर स्वतंत्र व्याख्या की है । 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' ग्रादि श्रुति वाक्यों पर सुंदर भाष्य भी किया है । साहित्यकी दृष्टिसे इनके वचन प्रत्यन्त उच्चकोटिके हैं । इनके वचन अत्यन्त छोटे होते हैं । विषयको स्पष्ट करनेवाले होते हैं । लालित्यपूर्ण और अधिकतर तालबद्ध होते हैं । गूढ़ से गूढ़ विषयको खोलकर रखने में अन्य किसी भी वचनकारसे वे अधिक कुशल हैं। गूढ़ विषयोंको स्पष्ट करनेमें ग्रन्य कोई वचनकार इनके समान यशस्वी नहीं हुआ है । इनके वचनोंमें सांप्रदायिक परिभाषाके शब्द बहुत ही कम आते हैं । "विषयवासना ही दुष्कर्म है, देववासना ही सत्कर्म है"; "विपयवासनाका त्याग कर निर्विषय होना ही मुख्य कार्य है"; "संकल्पविकल्पकी धारणा से मन कहलाता है, उसका प्रतिक्रमण किया कि महाज्ञान"
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