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वचन - साहित्य- परिचय
उन्होंने अपनी पुत्री गंगांबिका बसवेश्वर से व्याह कर दिया । उन्होंने बसवेश्वरको कल्याण में बुलाया । वसवेश्वर कल्याण गये । वह कायकके पक्षपाती थे । भला वह श्वसुर-गृहमें कैसे पड़े रह सकते थे ? मुफ्तका खाना उनके स्वाभिमानी हृदयने स्वीकार नहीं किया । उनकी मान्यता थी, 'कायकही कैलास हैं ।' कायककी प्राप्ति ही लिंगार्पण करने योग्य है। बिना लिंगार्पण किये वह कैसे खा सकते थे ? इसलिए वह किरानी बने ।
बसवेश्वर किरानी बनकर अपना कायक कर रहे थे। तभी एक पुरानी लिपिका कागज़ बिज्जल राजाको मिला । वह कोई भी पढ़ नहीं सकता था । आखिर बसवेश्वरको बुलाया गया । वसवेश्वरने वह कागज़ पढ़ा। उस कागज में किसी युग में भूमिमें छिपाकरके रखी बड़ी भारी संपत्तिकी जानकारी थी । बसवेश्वरकी सहायता से बिज्जलको वह अपार संपत्ति मिली । इससे राजा संतुष्ट हुए । उन्होंने बसवेश्वर को अपना मंत्री बनाया | दंडनायक भी वही बना । यह सब अपने आप चलकर उनके घर आया था । बसवेश्वरने उसे स्वीकार किया, और मंत्री - पदकी प्राप्तिको भी लिंगार्पण कर दिया । वह सब गुरु-लिंग-जंगमपूजाको दक्षिणा बनी । इस तरह उन्होंने मंत्री बनने के वाद भी शरीर परिश्रम और अपरिग्रहको निभाया। उन्होंने कहा है, "मैं जो परसेवा करता हूं वह दासोहके लिये । वीवी-बच्चोंके लिए नहीं । तेरा दिया धन तेरे और तेरे शरणों के लिए व्यय न कर और किसीके लिए व्यय करूं तो तेरी कसम !"
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बसवेश्वरकी धार्मिक भावना शुक्ल पक्ष के चंद्रमाकी तरह खिलती गयी । देश के चारों प्रोरसे हजारों लोग वहां ग्राने लगे । 'शून्यसंपादने' में लिखा है, उनके यहां आकर रहनेवाले शिवशरणोंकी संख्या एक लाख बानवें हजार थी ( शू. सं० पृष्ठ ३२० ) इसमें कोई शक नहीं कि इन सबके लिए बसवेश्वर ही सूत्रधार थे । इन्हीं शरणोंके द्वारा बसवेश्वरने शैवधर्म प्रवर्तन किया ।
विज्जल जैन था । उनके अन्य अनुयायियोंने उनके कान भरना शुरू किया । पहले-पहल बिज्जलने उस ओर ध्यान नहीं दिया । बसवेश्वर ने भी अपनेपर किये गये आरोपों का साधार खंडन किया । इससे विज्जलके मनमें भी कोई मलिनता नहीं रही । बसवेश्वरका धर्म - कार्य चलता रहा । वसवेश्वर कहते थे, " हम सब एक ही ईश्वरकी संतान हैं। इससे हम सबका बंधुत्व स्वाभाविक है । इस प्रकार वे जात-पातका बंधन तोड़ते जाते थे । मानव मात्रको बंधुत्वके सूत्र में बांधते जाते थे । उनका सवाल था, "बंधु-भाव में कोई ऊँचा और कोई नीचा कैसे ?" जैसे-जैसे उनका प्रचार बढ़ता गया, अन्य अनेक जाति, पंथ श्रादिके लोग शिव-दीक्षा लेने लगे । अस्पृश्य लोग भी आकर शिव-दीक्षा लेने लगे ।"