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वचन-साहित्य-परिचय 'पुरातनर वचन' कह कर जिन प्राद्योंकी वंदना की है, जिन वचनोंका महत्व गाया है वह भी इसी तथ्यकी ओर संकेत करता है । यह सब बातें वचनकारोंकी परंपराको श्री बसवेश्वरके कालसे एक दो शतक पीछे ले जाने में पर्याप्त हैं । इसके अलावा एक बात और है । वीरशैव अपने किसी शुभ-कार्यके आरंभमें 'त्रिपष्ठि पुरातनरु' कहकर ६३ पुरातन आद्य वचनकारोंकी पूजा करते हैं । उनके गीत गाते हैं । उनके नामपर ६३ पुराण भी लिखे गये हैं। किंतु आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे इस विषय में कोई ऐतिहासिक आधार नहीं मिलता । तो, केवल हमारे एक विशिष्ट दृष्टिकोणसे देखने पर जिसके लिए कोई आधार नहीं मिलता, वह सव असत्य है, अथवा तथ्यहीन है कहना कहां तक उचित होगा? इस मत-भेदके प्रश्नको छोड़ भी दिया जाय तो भी आजके अाधुनिक दृष्टिकोणसे जो प्रमाण मिले हैं वही वचनकारोंकी इस परंपराको श्री वसवेश्वरसे एक दो शतक पीछे ले जाने में पर्याप्त है ।। ___ अस्तु, इस विषयमें जब तक प्राप्त ऐतिहासिक सामग्रीकी पूरी छान-बीना नहीं होती और उसमें से स्पष्ट सिद्धांत नहीं निकाला जाता, तब तक तर्कसंगत कल्पनाके अलावा और कोई चारा नहीं है। श्री बसवेश्वरके कालमें जो धर्मजागृति पाई जाती है वह अपने पूर्ण विकसित रूपमें थी। श्री बसवेश्वरके कालमें वचन-साहित्यकी जो प्रगल्भता पाई जाती है वह भाषा, भावना, साहित्यिक सौष्ठव आदि सभी दृष्टियोंसे अत्यंत पुष्ट और प्रौढ़ है, मानो फलनेके लिए महुला करके फूला हुआ विशाल वृक्ष हो । बसवेश्वर और उनके साथियोंके कार्य उस वृक्षके सरस, मधुर फल ही थे। करीब सौ-दोसौ वर्षोंसे धीरे-धीरे प्रवाहित इस धाराने श्री बसवेश्वरके कालमें उमड़-उमड़ कर अपने किनारोंको तोड़कर समग्र कन्नड़-भाषा-प्रदेशको प्लावित कर डाला। कन्नड़-भाषाप्रदेशके धार्मिक जीवनको नित-नये भावोंसे हरा-भरा बना दिया। तभी अनुभव--मंटप नामसे एक संस्थाका सूत्रपात हुआ । अनुभव-मंटपकी यह अभूतपूर्व संघटना कन्नड़-सरस्वतीका साहित्य मंदिर, कन्नड़-जन-जीवनकी प्रचंड धर्म-जागृति और आनेवाले नवयुगके लिए कलशप्रायः. बनी।
अनुभव-मंटप उस युगकी धार्मिक और सांस्कृतिक संस्था थी । स्वयं वचनकारोंने ही अपनी इस संस्थाका यह नामकरण किया था। 'संगन बसवेश्वर" नामकी मुद्रिकावाले एक वचनकारने लिखा है "श्री बसवेश्वर आदि बुजुर्गों के 'निज आचरणकी स्थितिका रहस्य हमसे कहो' ऐसी. प्रार्थना करनेके बाद श्री अल्लम प्रभु शून्य सिंहासन पर विराजमान हुए।" शैव संतः इस अनुभव-मंटपको 'शिवमंटप' भी कहते थे। शिव ही सर्वोत्तम है, शिव ही परम दैवत है, ऐसी उनकी मान्यता है । इसलिए उन्होंने कभी-कभी अनुभवको. शिवानुभव, तथा.