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६३. विसल्लापुव्वभवकित्तणपव्वं नवरं पुण इह नयरे, राया नामेण दोणमेहो त्ति । पसुमन्तिसयणपरियण-सहिओ सो नाउ नीरोगो ॥ सद्दाविओ य तो सो, भणिओ कह रोगवज्जिओ सि तुमं । मामय ! साहेहि फुडं, एयं मे कोउयं परमं ॥ सो भइ मज्झ दुहिया, अस्थि विसल्ला गुणाहिया लोए । नीसे गब्भत्थाए, जणणी रोगेण परिमुक्का ॥ निणसासणाणुरत्ता, निच्चं पूयासमुज्जुयमईया । बन्धूहि परियणेण य, पूइज्जइ देवया चैव ॥ ह्मणोदएण तीए, सुरहिसुयन्धेण देव ! सित्तो हं । समयं निययजणेणं, तेण निरोगत्तणं पत्तो ॥ सुणिऊण वयणमेयं, विज्जाहरतो मए वरुज्जाणे । चरियं तु विसल्लाए, सत्तहिओ पुच्छिओ समणो ॥ लक्ष्मणस्य विशल्यायाश्च चरितम् -
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नलहरगम्भीरसरो, चउनाणी साहिउं मह पवत्तो । अह पुण्डरीयविजए, नयरं चक्कद्धयं नाम ॥ तत्थेव चक्कवट्टी, धीरो परिवस तिहुयणाणन्दो । नामेण अणङ्गसरा, तस्स उ गुणसालिणी धूया ॥ अह अन्नया कयाई, सुषइट्टपुराहिवेण सा कन्ना । हरिया पुणबसूणं, घणलोहायत्तचिचेणं ॥ चकहरस्सा ऽऽणा, सहसा विज्जाहरेहिं गन्तुणं । जुज्झं कयं महन्तं, तेण समं पहरविच्छड्डु ं ॥ अह तस्स वरविमार्ण, भग्गं चिय खेयरेहि रुद्धेहिं । तत्तो विवडइ बाला, सोहा इव सरयचन्दस्स ॥ पुण्णलहुयाएँ तो सा, विज्जाऍ पुणवसूनि उत्ताए । सावयपउरखाए, पडिया अडवीऍ घोराए ॥ ३८ ॥ विविहतरुसंकडुट्टिय-अन्नोन्नालीढवेणुसंघाया । विसमगिरिदुप्पवेसा, सावयसय संकुला भीमा ॥ ३९ ॥ साथ वुहिया, दस वि दिसाओ खणं पलोएउं । सुमरिय बन्धुसिणेहं, कुणइ पलावं महुरवाणी ॥ ४० ॥ हा ताय ! सयललोयं, परिवालसि विक्कमेण जियसत्तू । कह अणुकम्पं न कुणसि, एत्थ अरण्णम्मि पावाए ? ॥ ४१ ॥ हा जणणि ! उदरदुक्खं, तारिसयं विसहिऊण अइगरुयं । भयविहलदुम्मणार, कह मज्झ तुमं न संभरसि ? ॥ ४२ ॥
इस नगर में द्रोणमेघ नामका राजा था। वह पशु, मंत्री, स्वजन एवं परिजनके साथ नीरोग हो गया । (२७) तब वह बुलाया गया । उससे पूछा कि तुम रोगरहित कैसे हुए? मुझे इसके बारेमें स्पष्ट रूपसे कहो । मुझे अत्यन्त कुतूहल हो रहा है । (२८) उसने कहा कि लोकमें विशेष गुणवाली विशल्या नामकी मेरी एक पुत्री है जिसके गर्भ में रहने पर माता रोगसे मुक्त हो गई थी । (२९) वह जिनशासनमें अनुरक्त तथा पूजा के लिए सदैव उद्यत बुद्धिवाली है । वन्धु एवं परिजनों द्वारा वह देवता की भाँति पूजी जाती है । (३०) हे देव ! अपने लोगोंके समक्ष उसके द्वारा सुगन्धित गन्धवाले स्नानोदकसे में सींचा गया। उससे मैंने नीरोगता प्राप्त की है । (३१) विद्याधर के पाससे यह कथन सुनकर मैंने उस उत्तम उद्यान में स्थित सत्त्वहित श्रमण विशल्या के चरित के बारे में पूछा । (३२) मेघके समान गम्भीर स्वरवाले उन चतुर्ज्ञानी मुनिने मुझसे कहा कि
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पुण्डरीक विजय में चक्रध्वज नामका एक नगर है । (३३) वहाँ धीर एवं तीनों लोकों को आनन्द देनेवाला अनंगशर नामका एक चक्रवर्ती रहता था । उसकी एक गुणशालिनी पुत्री थी । (३४) एक दिन मनमें अत्यन्त तृष्णायुक्त हो सुप्रतिष्ठानपुरके राजा पुनर्वसु उस कन्याका अपहरण किया । (३५) चक्रवर्तीकी आज्ञासे विद्याधरोंने सहसा जाकर उसके साथ जिसमें शस्त्रसमूहका उपयोग किया गया है ऐसा महान युद्ध किया । (३६) उस समय क्रुद्ध खेचरोंने उसका उत्तम विमान तोड़ डाला । शरच्चन्द्रकी शोभाकी भाँति वह उसमेंसे नीचे गिरी । (३७) पुनर्वसुके द्वारा प्रयुक्त विद्यासे वह पुण्य अल्प होनेके कारण जंगली जानवरों के प्रचुर खसे युक्त' घोर जंगलमें जा गिरी। (३८) वह भयंकर जंगल विविध प्रकारके उगे हुए वृक्षोंसे व्याप्त था, उसमें वांसके समूह एक-दूसरे में सटे हुए थे, वह विषम पर्वतों के कारण दुष्प्रवेश था तथा सैकड़ों जङ्गली जानवरोंसे युक्त था । ( ३६ ) मधुर वाणीवाली वह मनमें भीत हो एक क्षण भरमें दसों दिशाओंको देखकर और बन्धुजनोंके स्नेहको यादकर प्रलाप करने लगी। (४०) हा तात ! तुम पराक्रमसे शत्रुओं को जीतकर सारे लोकका पालन करते हो। इस अरण्यमें तुम मुझ पापीपर करुणा क्यों नहीं करते ? ( ४१ ) हा माता ! वैसा अतिभारी उदर-दुःख सहन करके भयसे विह्वल और उनि मुझे तुम क्यों याद नहीं करती ? (४२) हा गुणी परिवर्ग ! मुझ पापकारिणीपर वैसा वात्सल्य करके अब क्यों वह सब
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