Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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वश इस ग्रन्थ में प्रत्यकार ने भावों का और संख्या का भी विचार किया है ।
यह प्रश्न हो हो नहीं सकता कि तीसरे कर्मप्रम्य को संगति के अनुसार मागंणास्थानों में गुणस्थानों मात्र का प्रतिपादन करना आवश्यक होने पर भी, जैसे अन्य-अन्य विषयों का इस प्रन्थ में अधिक वर्णन किया है, वैसे और भी नये-नये कई विषयों का वर्णन इसो ग्रन्थ में क्यों नहीं किया गया ? क्योंकि किसी भी एक अन्य में सब विषयों का वर्णन असम्भव है । अतएव कितने और फिन विषयोंका किस क्रम से वर्णन करना, यह प्रन्यकार की इच्छा पर निर्भर है। अर्थात् इस बात में प्रत्यकार स्वतन्त्र है। इस विषय में मियोग-पर्य नुयोग करने का किसी को अधिकार नहीं है।
प्राचीन और नवीन चतुथं कर्मग्रन्थ । 'षडशीतिक' यह मुख्य नाम दोनों का समान है, क्योंकि गाथाओं को संस्था दोनों में बराबर छियासो ही है। परन्तु नवीम अन्धकार ने 'सूक्ष्मानं विचार' ऐसा नाम विधा है और प्राचीम को टीका के अन्त में टोकाकार ने उसका नाम 'आगमि वस्तु विचारसार' दिया है । नवीन की तरह प्राचीन में भी मुख्य अधिकार जोषस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान, ये तीन ही हैं । गौण अधिकार मी जैसे नवीन क्रमशः आठ, छह तथा वस हैं, वैसे ही प्राचीन में भी हैं । गाथाओं को संस्था समान होते हुए भी नवीन में यह विशेषता है कि उसमें वर्णन शैली संक्षिप्त करके ग्रन्थकार ने दो और विषय विस्तारपूर्वक वर्णन किये है । पहला विषय भाव' और दूसरा 'संख्या है । इन दोनों का स्वरूप नवीन में सविस्तार है और प्राचीन में बिल्कुल नहीं है । इसके सिवाप प्राचीन और नवीन का विषयसाम्य तथा प्रम-साम्य बराबर है। प्राचीन पर टीका, टिप्पणी,