Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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संगति
पहले सोन कर्मग्रन्थों के विषयों को संगति स्पष्ट है । अर्थात् पहले । कर्म ग्रन्थ में मूल तथा उत्तर फर्म प्रकृतियों की संख्या और उनका विपाक वर्णन किया गया है। दूसरे कर्मग्रन्थ में प्रत्येक गुणस्थान को लेकर उसमें पथासम्भव बन्ध, उवय, उदीरणा और सत्तागत उत्तर प्रकृतियों की संख्या बतलाई गई है और तीसरे कर्मग्रन्थ में प्रत्येक मार्गशास्थान को लेकर उसमें यथा सम्भव गणस्थानों के विषय में उत्तर कर्मप्रकृतियों का बन्धस्वामित्व वर्णन किया है । तोसरे कर्मप्रन्थ में मार्गणास्थानों में गुणस्थानों को लेकर सन्धस्वामित्व वर्णन किया है सही. फिन्तु मूल में कहीं भी यह विषय स्वतन्त्र रूप से नहीं कहा गया है कि किस किस मार्गणास्थान में कितने कितने और किन-किन गुणस्थानों का सम्भव है।
अतएव चतुर्थ फर्मग्रन्थ में इस विषय का प्रतिपादन किया है और उक्त जिज्ञासा की पूर्ति की गई है । जैसे मार्गणास्थामों में गुण स्थानों की जिज्ञासा होती है, वैसे ही जीवस्थानों में गुणस्थानों को और गुणस्थानों में जीवस्थानों को भी जिज्ञासा होती है। इतना ही नहीं बहिक जीवस्थानों में योग, उपयोग आदि अन्यन्य विषयों को और मागंणास्थानों में जोधस्थान, योग, उपयोग आदि अन्यन्य विषयों की तथा गुणस्थानों में योग, उपयोग आदि अन्यान्य विषयों की मो जिज्ञासा होती है। इन सब जिज्ञासाओं की पूर्ति के लिये चतुर्थ कर्मग्रन्थ को रचना हुई है। इसी से इसमें मुख्यतया जीवस्थाम मार्गगास्थान, और गुणस्थान, ये तीन अधिकार रखे गये हैं । और प्रत्येक अधिकार में क्रमश: आठ, छह वस विषय वणित हैं, जिनका निर्देश पहली गाथा के भावार्थ में पृष्ठ २ पर तया स्फुट नोट में संग्रह गाथाओं के द्वारा किया गया है । इसके सिवाय प्रसंग