________________ (6) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध चतुर होते हैं। इसलिए बहुमूल्य पाँच रंगवाले मानोपेतरहित वस्त्र रखते हैं। इसलिए उन्हें सचेलक कहते हैं। क्योंकि उनके लिए अचेलक कल्प की कोई मर्यादा नहीं है। इस कारण से उनके लिए यह कल्प अनियत है। तथा पहले और अन्तिम तीर्थकर के साधु-साध्वी के लिए यह कल्प नियत है याने कि निश्चय से है। 2. दूसरा उद्देशिक कल्प कहते हैं- साधु अथवा साध्वी के उद्देश्य से तैयार किये हुए आहारादिक को उद्देशिक कहते हैं। इसमें मध्य के बाईस तीर्थंकरों के समय में जिस साधु अथवा साध्वी के निमित्त से किसी गृहस्थ ने भोजन,पानी, औषधि, वस्त्र-पात्र आदि बनवाये हों, तो वे पदार्थ उस साधु अथवा साध्वी को वहोरना योग्य नहीं है; पर शेष अन्य साधुओं को वहोरना कल्पता है अर्थात् अन्य साधुओं के लिए वे पदार्थ वहोरने योग्य हैं। उन्हें आधाकर्मादि दोष नहीं लगते। तथा पहले और अंतिम तीर्थंकर के शासन में तो एक साधु अथवा एक साध्वी के लिए जो आधाकर्मिक आहारादिक बनवाये हों, वे सब प्रकार से किसी भी साधु अथवा साध्वी को लेना योग्य नहीं है। 3. तीसरा शय्यातर-पिंड कल्प कहते हैं- उपाश्रय के मालिक को. शय्यातर कहते हैं। अथवा जो साधु को रहने के लिए स्थान देता है, यानि कि जिसकी आज्ञा ले कर साधु किसी जगह पर ठहरते हैं, उस घर के स्वामी को शय्यातर कहते हैं। उसके घर का पिंड- आहारादिक बारह पदार्थ सब तीर्थंकरों के साधुओं को वहोरना कल्पता नहीं है। उन बारह पदार्थों के नाम कहते हैं- 1. आहार, 2. पानी, 3. खादिम, 4. स्वादिम, 5. कपड़ा, 6. पात्र, 7. कंबल, 8. ओघा, 9. सूई, 10. पिष्पलक, 11. नाखून काटने की नेरणी, (नेल कटर), 12. कान का मैल निकालने की चाटुई, ये बारह वस्तुएँ तथा अन्य भी छुरी, कैंची और सरपला प्रमुख चीजें किसी भी साधु को लेना कल्पता नहीं है। यह शय्यातर-पिंड लेने में अनेषणीय अशुद्ध दोष का संभव होता है। प्रसंग के अनुसार बड़े दोष भी लगते हैं, क्योंकि साधु के प्रति राग के कारण पारणा और उत्तर पारणा के लिए बार बार जाते-आते अशुद्ध आहारादिक दही-दूधप्रमुख स्निग्ध वस्तुएँ