________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (5) 1. प्रथम अचेलक कल्प कहते हैं- वस्त्र नहीं रखने को अचेलक कहते हैं। इसमें श्री ऋषभदेव भगवान तथा श्री महावीरस्वामी के साधु तो श्वेत मानोपेत जीर्णप्राय वस्त्र धारण करें। नाभि से चार अंगुल नीचा और गुदा से चार अंगुल ऊँचा साढ़े तीन हाथ का चोलपट्टा रखें तथा साढ़े चार हाथ की चादर रखें और अपने हाथ से एक बेंत चार अंगुल की मुहपत्ती रखें। इस प्रकार आधा शरीर खुला और आधा शरीर ढंका रखें। इस तरह पहने हुए वस्त्र बिना पहने जैसे समझना। इसलिए उसे अचेलक कहते हैं। इसके ऊपर दृष्टान्त कहते हैं- जैसे किसी एक पुरुष ने धोती बनाने वाले से कहा कि मेरी धोती जल्दी दे, क्योंकि मैं नग्न फिरता हूँ। ऐसा वचन व्यवहार से कहा। अब उस पुरुष ने पुराने वस्त्र की धोती पहनी है, फिर भी 'नग्न फिरता हूँ' ऐसा कहा। पुनः अन्य दृष्टान्त कहते हैं- जैसे किसी पुरुष ने पगड़ी पहन कर नदी पार की। उससे किसी ने पूछा-भाई! तुमने नदी कैसे पार की? तब उसने उत्तर दिया कि मैंने नग्न हो कर नदी पार की। पुनः तीसरा दृष्टान्त कहते हैं- जैसे कोई बुढ़िया पुराने वस्त्र पहन कर जुलाहे के पास गयी और कहने लगी- अरे भाई! मेरे वस्त्र तैयार हुए हों,तो मुझे दे दो। मैं नग्न फिरती हूँ। इस तरह साधु को भी जीर्णप्राय पुराने श्वेत मानोपेत वस्त्र धारण करने पर भी वस्त्र रहित अचेलक ही कहते हैं। ..इसी प्रकार इस वर्तमान चौबीसी में श्री ऋषभदेव और श्री महावीर को कुछ अधिक एक वर्ष के पश्चात् इन्द्रदत्त वस्त्र के अपगम से जावज्जीव पर्यन्त अचेलकपना था और चौबीसों तीर्थंकरों के आश्रय से तो दीक्षा लेते वक्त इन्द्र महाराज उनके कंधे पर देवदृष्य वस्त्र रखते हैं, वह जब तक कंधे पर रहता है, तब तक उन्हें सचेलक कहते हैं और वस्त्र गिर जाने के बाद उन्हें अचेलक कहते हैं। तथा इस चौबीसी में दूसरे श्री अजितनाथ भगवान से श्री पार्श्वनाथ भगवान पर्यन्त के बाईस तीर्थंकर मध्य के कहलाते हैं। उनके कन्धे पर देवदूष्य वस्त्र आयुष्य दो घड़ी शेष रहने तक रहता है; इसलिए उन्हें सचेलक-वस्त्र सहित कहते हैं। तथा इन बाईस तीर्थंकरों के साधु भी ऋजु याने शुभ मनवाले, सरल और दक्ष याने पंडित-समझदार व