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जैनराजतरंगिणी
शुक लिखता है श्री जोनराज एवं विद्वान् श्रीवर ने बासठ वर्ष यावत दो मनोरमा राजावली ग्रन्थ ग्रन्थित किये थे । (शुक : १:६) जोनराज की मृत्यु सन् १४५९ ई० मे हई थी। श्रीवर अन्तिम लौकिक वर्ष ४५६२ = सन् १४८६ ई० देता है । इसी समय मुहम्मद शाह प्रथम बार राज्यच्युत और फतहशाह प्रथम बार काश्मीर का सुल्तान हुआ था।
शिक्षा:
श्रीवर स्वयं लिखता है राजतरंगिणी रचना करते हुए विद्वान् जोनराज ने ३५वें वर्ष (लो० : ४५३५ - सन् १४५९ ई०) शिव सायुज्यता प्राप्त किया। इसी जोनराज का शिष्य मैं श्रीवर पण्डित राजावली ग्रन्थ के शेष को पूर्ण करने के लिये उद्यत हूँ।" (१:१:६, ७) 'कहाँ मेरे उस गुरु का काव्य और कहाँ मन्दमति मेरा वर्ण मात्र की समानता से अकोल क्या कर्पूर हो सकता है ?' (१:१:८) इससे स्पष्ट हो जाता है कि श्रीवर का गुरु जोनराज था।
द्वितीय राजतरगिणी का रचनाकार राजानक जोनराज संस्कृत साहित्य का प्रकाण्ड विद्वान् था। तत्कालीन राज्य की सर्वश्रेष्ठ उपाधि राजानक पदवी से विभूषित था। जैनुल आबदीन सुल्तान का राजकवि था। उसने मंखक कृत श्रीकण्ठ चरित, अज्ञात कविकृत पृथ्वीराज विजय, तथा भारविकृत 'किरातार्जुनीय' जैसे संस्कृत महाकाव्यों की टीका की थी। जोनराज सिद्धहस्त लेखक था। काव्य व्यञ्जना जानता था। उसने राजतरंगिणी में अलंकारो का यथा स्थान सुन्दरतापूर्वक प्रयोग किया है।
जोनराज काव्य मर्मज्ञ था। रामायण, महाभारत, भास, वाण, कालिदास, जयानक, आदि कवियों की रचनाओं का अध्ययन किया था। ज्योतिष, दर्शन आदि का गम्भीर विद्वान् था। श्रीवर उसी महाकवि का शिष्य था। उसे इस बात का गौरव था। जोनराज का शिष्य था। श्रीवर ने जोनराज की शिष्य परम्परा का निर्वाह राजतरंगिणी की रचना कर किया है। श्रीवर की महत्ता इसी से प्रकट होती है कि वह जोनराज की महत्ता स्वीकार कर, उसके प्रति, अपने गुरु के प्रति, आभार एव आदर प्रकट करता है।
राजतरंगिणी ज्ञान: जोनराज के पास पुस्तकालय था। साहित्य एवं इतिहास ग्रन्थों का संग्रह था। जोनराज ने स्वय काश्मीर के ३१० वर्षो का इतिहास लिपिबद्ध किया था। उसने कल्हणकाल से अपनी मृत्युकाल का इतिहास लिखा था। कल्हण की राजतरंगिणी का अध्ययन श्रीवर ने अपने गुरु के पास अवश्य किया होगा। उसका गुरु स्वयं इतिहास लिख रहा था। उसके पास तत्कालीन इतिहास ग्रन्थों का होना अनिवार्य था। श्रीवर के समय जोनराज ने अपनी राजतरगिणी का प्रणयन किया था। उन दिनों शिष्य गुरु की सहायता करते थे। गुरु के निवासस्थान पर, उनका अधिक समय व्यतीत होता था। यह परम्परा काशी मे बीसवी शताब्दी के . प्रथम दो दशकों तक मेरी जानकारी में प्रचलित थी।
श्रीवर ने कल्हण कुत राजतरंगिणी से उपमा तथा अपने ग्रन्थ के लिये इतिहास सामग्री ली है। उसने ललितादित्य, जयापीड आदि राजाओ का उल्लेख किया है। ललितादित्य के इच्छा पत्र (वसीयत नामा) का भाव वह उद्धृत करता है-'यहाँ के नृपति सर्वदा अपना भेद रक्षित रखे, क्योंकि चार्वाकों के समान इन लोगो को परलोक से भय नहीं होता। ललितादित्य की निर्धारित इस नीति का जो उल्लंघन कर, परस्पर वैर करते है, वे मन्त्री नष्ट हो जाते है।' (३:२९७-२९८) द्रष्टव्य : रा०:३४:३४२-३५९) श्रीवर एक राजतरंगिणी की ओर सूचना देता है ।