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भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ निग्रंथों का स्वरूप
भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक कितने प्रकार के कहे हैं ?
८ उत्तर-हे गौतम ! स्नातक पांच प्रकार के कहे हैं । यथा-१ अच्छवि २ अशबल ३ अकांश ४ संशुद्ध ज्ञान-दर्शन धारक अरिहन्त जिन केवली और ५ अपरिस्रावी।
विवेचन-ग्रन्थ दो प्रकार के हैं-आभ्यन्तर और बाह्य । मिथ्यात्व आदि आभ्यन्तर ग्रन्थ हैं और धर्मोपकरण के अतिरिक्त शेष धन-धान्यादि बाह्य ग्रन्थ है । इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ से जो रहित है, उसे 'निर्ग्रन्थ' कहते हैं। इन सब के सर्वविरति चारित्र होते हुए भी चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशमादि की विशेषता से पुलाक आदि पाँच भेद होते हैं।
पुलाक-दाने सहित धान्य के पूले को 'पुलाक' कहते हैं । वह निस्सार होता है। उसी प्रकार संयम रूपी सार से रहित संयत को 'पुलाक' कहते हैं । वह संयमवान् होते हुए भी दोषों से संयम को कुछ अंश में असार करता है।
की पुलाक के दो भेद हैं-लब्धिपुलाक और प्रतिसेवनापुलाक । पुलाक लब्धि से युक्त साध 'लब्धिपुलाक' कहलाता है, जो कि संघादि के प्रयोजन से बल-वाहन सहित चक्रवर्ती का भी विनाश कर सकता हैं । इस विषय में किन्हीं आचार्यों का कथन, इस प्रकार है किप्रतिसेवना (विराधना-ज्ञानादि में अतिचार लगाना) से जो ज्ञानपुलाक है, उसी को इस प्रकार को लब्धि होती है और वही लब्धिपुलाक कहलाता है । इसके अतिरिक्त दूसरा कोई लब्धिपुलाक नहीं होता। .
प्रतिसेवनापुलाक की अपेक्षा पुलाक के पांच भेद कहे हैं । यथा-ज्ञानपुलाक, दर्शनपलाक, चारित्रपुलाक, लिंगपुलाक और यथासूक्ष्मपुलाक । ज्ञानपुलाक-स्खलित, मिलित आदि ज्ञान के अतिचारों का सेवन करने वाला साधु ज्ञानपुलाक कहलाता है । दर्शनपुलाक-शंका, कांक्षा, कृतीर्थ परिचय आदि समकित के अतिचारों का सेवन कर के सम्यक्त्व को दूषित करने वाला साधु. दर्शनपुलाक कहलाता है। चारित्रपुलाक-मूलगुण और उत्तरगुणों में दोष लगा कर चारित्र की विराधना करने वाला साध चारित्रपुलाक कहलाता है । लिंगपूलाकशास्त्र में उपदिष्ट साधु-लिंग से अधिक धारण करने वाला अथवा निष्कारण अन्यलिंग को, धारण करने वाला साधु लिंगपुलाक कहलाता है । यथासूक्ष्मपुलाक-कुछ प्रमाद होने से मन से अकल्पनीय ग्रहण करने के विचार वाला साधु यथासूक्ष्म पुलाक कहलाता है। - यश का अर्थ है-'शयले' = वित्र वर्ण । शरीर और उपकरण को शोभनीय
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