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भगवती मत्र-ग. :४ अवान्तर शतक : विग्रहगति
भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! जो कृष्णलेश्या वाला अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्व चरमान्त में समुदघात कर के पश्चिम चरमान्त में उत्पन्न हो, तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ?
२ उत्तर-हे गौतम ! औधिक उद्देशक के अनुसार इस अभिलाप से यावत् लोक के चरमान्त तक, सर्वत्र कृष्णलेश्या वालों में उपपात कहना चाहिये ।
३ प्रश्न-कहिं णं भंते ! कण्हलेस्सअपजत्तवायरपुढविकाइयाणं ठाणा पण्णता ?
३ उत्तर-एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहिउद्देसओ जाव तुल्लटिइय त्ति । 'सेवं भंते। .. एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढमं सेढिसयं तहेव एकारस उद्दे. - सगा भाणियध्वा ३४-२-११ ।
॥ बिइयं एगिदियसेढिसयं समत्तं ॥ . .. भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीव के स्थान कहाँ कहे हैं ?
३ उत्तर-हे गौतम ! औधिक उद्देशक के इस अभिलाप के अनुसार यावत् 'तुल्य स्थिति वाले' पर्यन्त कहना चाहिये।
जिस प्रकार प्रथम श्रेणी शतक कहा, उसी प्रकार इसी अमिलाप से कृष्णलेशी श्रेणी-शतक के ग्यारह उद्देशक कहना चाहिये ।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
॥ चौतीसवें शतक का दूसरा अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥
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