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भगवती मुत्र-ग. ४१ उ. १६६ |
३८०९
हिणं करेइ, करेसा वंदइ णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी'एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! अमंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिन्छियमेयं भंते ! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते ! सच्चे णं एममटे, जे णं तुम्भे वयह त्ति कटु अपूड़वयणा खलु अरिहंता भगवंतो, समणं भगवं महावीरं वंदह, णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरह । रासीजुम्मसयं समत्तं ।
॥ इगचत्तालीसमं सयं समत्तं ॥
कठिन शब्दार्थ--अण्णउयं-- छियानवे (९६), अवितह-अवितथ--सत्य, असंविझं--असंदिग्ध--सन्देह रहित, इच्छियं--इच्छित (इष्ट), परिच्छियं-प्रतीच्छित, अपूरवयणा- पवित्र वचन वाले ।
भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! राशि-युग्म में कृतयुग्म राशि शुक्लपाक्षिक नरयिक कहां से आते हैं ?
.. १ उत्तर-यहां भवसिद्धिक के समान अट्ठाईस उद्देशक हैं । इस प्रकार सभी मिला कर १९६ उद्देशक का राशि-युग्म शतक होता है । यावत्
प्रश्न-हे भगवन् ! शवललेश्या वाले शुक्लपाक्षिक कल्पोज राशि वैमानिक यावत् जो सक्रिय हैं, वे उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं यावत् समी दुःखों का अन्त करते हैं ?
उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं।
भगवान् गौतम, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार भावक्षिणप्रदक्षिणा करते हैं। आदक्षिण-प्रदक्षिणा कर के वन्दन नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार कर के इस प्रकार बोले-“हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
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