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विषय
शतक उद्देशक भाग
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कांक्षा मोहनीय कर्म के बंधन, वेदन, हेतु उदीरणा तथा अस्तित्वादि
१ ३ १ १६३-२०२ कर्म-प्रकृति पर प्रज्ञापना पद २३ का निर्देश १ ४ १ २०३- ५ कर्म-वेदने के दो भेद-प्रदेश व अनुभाग
१ ४ १ २११-१४ केवली ही सिद्ध होते हैं, छद्मस्थादि नहीं, केवली
ही अलमत्थु (पूर्ण) है । (श. ५ उ. ५ भाग २ पृ. ८३२-३६ पर भी, तथा श. ७ उ. ८
भाग ३ पृ. ११८२-८३ पर भी है) १ ४ १ २१६-२२१ कषाय की स्थिति, अवगाहना आदि १० द्वारों पर । २४ दण्डक निरूपण
१ ५ १ २२७ - ३७ क्रियाएँ प्राणातिपातादि जीवों को स्पर्शी हुई, . १ ६ १ २६४- ६९ क्रियाएँ मृगवध, अग्नि-प्रज्वलन, पुरुष-वधादि १ ८ १ ३१६- २५ कालास्यवेषि अनगार के पंचमहाव्रतादि प्रश्न १ . ९ १ ३४४-- ५३ क्रिया के ५ भेद, प्रभेद, क्रिया व वेदना का ..
अनुक्रम, प्रमाद व योग से श्रमण-निग्रंथों को
क्रिया लगती है । मंडितपुत्र के प्रश्न ३ ३ . १ ६५१- ५६ केवली के सर्वगत शब्द ज्ञानादि, छद्मस्थ के इंद्रियगोचर
५ ४ २ ७९४-७९८ केवलियों के हास्य-निद्रादि नहीं, छद्मस्थों के ५ ४ २ ७९८-८०२ केवली चरमशरीरी को स्वयं जानते हैं, छद्मस्थ ___ सुन कर जानता है
५ ४ २ ८१७- १९ केवली चरमकर्म व चरमनिर्जरा को स्वयं जानते हैं ५ ४ २ ८२१-२४ केवलियों के प्रकृष्ट मन वचन जानते हैं
५. ४. २ ८२१- २४ केवली केवलज्ञान से जानते है, इंद्रियों से नहीं (श. ६ उ १० भाग २ पृ. १०७५ पर भी है) ५ २ २ ८२६- २८
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