Book Title: Bhagvati Sutra Part 07
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 660
________________ भगवती मूत्र-श. ४१ उपसंहार ३८११ उत्तम (सर्व श्रेष्ठ)ज्ञान और दर्शन के धारक महापुरुषों ने इस अंग में चौरासी लाख पद कहे हैं तथा विधि रूप और निषेध रूप अनन्त (अपरिमित) भाव कहे हैं ॥१॥ तप, नियम और विनय रूप जिसको वेला है तथा निर्मल और विपुल ज्ञान रूपी जल जिसमें मरा हुआ है, जो सकड़ों हेतु रूप महान् वेग वाला है और जो गुणों से विशाल है, ऐसा संघ रूपी समुद्र जय को प्राप्त होता है ॥२॥ ___शतकों का परिमाण इस प्रकार है-एक से ले कर बत्तीसवें शतक तक किसी भी शतक में अवान्तर शतक नहीं है। तेतीसवें शतक से ले कर उनचालीसवें शतक तक सात शतकों में प्रत्येक में बारह बारह अवान्तर शतक हैं। इस प्रकार ये ८४ शतक हैं। चालीसवें शतक में २१ अवान्तर शतक हैं। इकतालीसवें शतक में अवान्तर शतक नहीं हैं। इन सभी को मिलाने से १३८ (३२+८४+२१+१=१३८)शतक होते हैं। पहले शतक से ले कर इकतालीसवें शतक तक के उद्देशकों को मिलाने से सभी १९२५ उद्देशक होते हैं।। इस सम्पूर्ण भगवती सूत्र में पदों की संख्या चौरासी लाख कही है। इस सम्बन्ध में टीकाकार कहते हैं कि यह पदों की गणना किस प्रकार की है, इस विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। पदों का यह स्वरूप विशिष्ट सम्प्रदायगम्य है। णमो गोयमाईणं गणहराणं, णमो भगवईए विवाहपण्णत्तीए, णमो दुवालसंगस्स गणिपिडगस्स ।। १ ॥ कुम्मसुसंठियचलणा, अमलियकोरंटबेंटसंकासा । सुयदेवया भगवई, मम मतितिमिरं पणासेउ ॥ २ ॥ शतकों के प्रारम्भ में दी गई संग्रहणी गाथाओं के अनुसार तो उद्देशकों की संख्या १९२३ ही होती है, किन्तु यहाँ इस गाथा में १९२५ बताई है। बीसवें शतक के १२ उद्देशक गिने जाते हैं, परन्तु प्रस्तुत वांचना में पृथ्वीकाय, अप्काय, ते उकाय इन तीनों का सम्मिलित एक (छठा) उद्देशक ही उपलब्ध होने से दस ही उद्देशक हैं । इस प्रकार दो कम हो जाने से गिनती १९२३ ही आती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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