Book Title: Bhagvati Sutra Part 07
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 652
________________ भगवती मूत्र-ग. ४१ उ. २४-३२ ३८०३ १ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत्, किन्तु जिनमें तेजोलेश्या पाई जाती हो, उन्हीं के कहना । इस प्रकार कृष्णलेश्या के समान चार उद्देशक जानो। __-एवं पम्हलेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा कायवा । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं वेमाणियाण य एएसिं पम्हलेस्सा, सेसाणं णत्थि ॥ २१-२४ उद्देसा समत्ता ॥ .. भावार्थ--इसी प्रकार पद्मलेश्या के भी चार उद्देशक जानो। पंचेन्द्रिय तियंच, मनुष्य और वैमानिक देव में पद्मलेश्या होती है, शेष में नहीं होती। ___-जहा पम्हलेस्साए एवं सुकलेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा । णवरं मणुस्साणं गमओ जहा ओहिउद्देसएसु, सेसं तं चेव। एवं एए छसु लेस्सासु चउवीसं उद्देसगा, ओहिया चत्तारि, सव्वे ते अट्ठावीसं उद्देसगा भवंति। सेवं भंते' ॥२५-२८ उद्देसा समत्ता॥ भावार्थ--पद्मलेश्या के अनुसार शुक्ललेश्या के भी चार उद्देशक करना चाहिये, परन्तु मनुष्य के लिये औधिक उद्देशक के अनुसार है। शेष पूर्ववत् । इस प्रकार छह लेश्याओं के चौबीस उद्देशक होते हैं और चार औधिक उद्देशक हैं। ये सभी मिला कर अट्ठाईस उद्देशक होते हैं। १ प्रश्न-भवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववति ? १ उत्तर-जहा ओहिया पढमगा चत्तारि उद्देसगा तहेव गिरवसेसं एए चत्तारि उद्देसगा । ४१-३२ । २ प्रश्न-कण्हलेस्सभवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववजति ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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