Book Title: Bhagvati Sutra Part 07
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 620
________________ भगवती सूत्र-ग. ४० अवान्तर शतक १ ३७७१ भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन ! वे जीव आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रह संज्ञोपयुक्त या नोसंजोपयुक्त होते हैं ? इस प्रकार सर्वत्र प्रश्न करना चाहिये । ४ उत्तर-हे गौतम ! वे आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् नोसंज्ञोपयुक्त होते हैं। वे क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी अथवा अकषायो होते हैं । वे स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक अथवा अवेदक होते हैं। वे स्त्रीवेद बन्धक, पुरुषवेदबन्धक, नपुंसकवेद-बन्धक या अबन्धक होते हैं। वे संज्ञी होते हैं, असंज्ञी नहीं । वे सइन्द्रिय होते हैं, अनिन्द्रिय नहीं होते । इनकी संचिटणा (संस्थिति काल) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम शतपृथक्त्व होती है । आहार के विषय में पूर्ववत् यावत् नियम से छह दिशा का आहार होता है । स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम होती हैं। प्रथम के छह समुदघात होते हैं। मारणांतिक समुद्घात से समवहत हो कर भी मरते हैं और असमवहत भी मरते हैं । उद्वर्तना का कथन उपपात के समान है, कहीं भी निषेप नहीं, यावत् अनुत्तर विमान तक । ५-अह भंते ! सव्वपाणा जाव अणंतखुत्तो । एवं सोलसु घि जुम्मेसु भाणियव्वं जाव अणंतखुत्तो । णवरं परिमाणं जहा बेइंदि. याणं, सेसं तहेव ॥ ४०-१॥ भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! सभी प्राण, भूत, सत्व, यहां यावत् पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! पहले अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार सोलह युग्मों में यावत् पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं। परिमाण बेइन्द्रियों के समान । शेष पूर्ववत् । ४०-१। ६ प्रश्न-पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववजति ? For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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