Book Title: Bhagvati Sutra Part 07
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 622
________________ भगवती सूत्र-ग. ४० अवांतर शतक ? ३७७३ यहां भी ग्यारह उद्देशक है । पहला, तीसरा और पांचवां उद्देशक एक समान हैं और शेष आठ उद्देशक एक समान हैं तथा चौथा, आठवां और दसवां, इन तीन उद्देशकों में किसी प्रकार की विशेषता नहीं है। __'हे भगवन ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-उपशांत मोहादि जीव वेदनीय के अतिरिक्त सात कर्मों के अबन्धक होते हैं। शेष जीव यथासम्भव बन्धक होते हैं । केवली अवस्था से पहले सभी संजी जीव संजी पञ्चेन्द्रिय कहलाते हैं और वहां तक वे अवश्य वेदनीय कर्म के बन्धक ही होते हैं अबन्धक नहीं होते । इनमें से सूक्ष्म-सम्पराय गुणस्थान तक मंत्री पञ्चेन्द्रिय मोहनीय कर्म के वेदक होते हैं और उपशांत मोहादि जीव अवेदक होते हैं । उपशांत मोहादि जो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय होते हैं, वे मोहनीय के अतिरिक्त सात कर्म-प्रकृतियों के वेदक होते हैं, अवेदक नहीं होते। यद्यपि केवलज्ञानी चार अघाती कर्म-प्रकृतियों के वेदक होते हैं. परन्तु वे इन्द्रियों के उपयोग रहित होने से पंचेन्द्रिय और संज्ञी नहीं कहलाते, अनिन्द्रिय और नोसंज्ञीनोअसंज्ञी कहलाते हैं। सूक्ष्म-सम्पराय गणस्थान तक मोहनीय कर्म के उदय वाले होते हैं और उपांत मोहादि अनुदय वाले होते हैं । वेदकपन और उदय, इन दोनों में यह अन्तर है कि अनुक्रम से और उदीरणाकरण के द्वारा उदय में आये हुए (फलोन्मुख बने हुए) कर्म का अनुभव करना वेदकत्व है और अनुक्रम से उदय में आये हुए कर्म का अनुभव करना उदय कहलाता है। - अकषाय अर्थात् क्षीणमोह गुणस्थान तक सभी संजी पंचेन्द्रिय नामकर्म और गोत्रकर्म के उदीरक होते हैं । शेष छह कर्म-प्रकृतियों के यथासम्भवं उदीरक और अनुदीरक होते हैं । उदीरणा का क्रम इस प्रकार हैं-छठे प्रमत्त गुणस्थान तक सामान्य रूप से सभी जीव आठ, सात या छह कर्म के उदीरक होते हैं और जब आयु आवलिका मात्र शेष रह जाता है, तब वे आयु के अतिरिक्त सात कर्मों के उदीरक होते हैं । अप्रमत्त आदि चार गुणस्थानवी जीव वेदनीय और आयु के अतिरिक्त छह कर्मों के उदीरक होते हैं । जब सूक्ष्मसम्पराय आवलिका मात्र शेष रहता है, तब मोहनीय, वेदनीय और आयु के अतिरिक्त पांच कर्मों के उदीरक होते हैं। उपशांत मोह गुणस्थानवी जीव इन्हीं पांच कर्मों के उदीरक होते हैं । क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती जीव का काल आवलिका मात्र शेष होता है, तब नामकर्म और गोत्रकर्म के उदीरक होते हैं । सयोगी गुणस्थानवी जीव भी इसी प्रकार उदीरक होते हैं और अयोगी गुणस्थानवी जीव अनुदीरक होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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