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भगवती मूत्र-श. २८. उ. १ पाप का मंमर्जन और निर्गंव-गनि
६ अहवा तिरिक्ख जोणिपसु य णेरइएसु य देवेसु य होजा ७ अहवा तिरिक्वजोणिएसु य मणुम्सेमु य देवेमु य होजा ८ अहवा तिरिक्खजोणिएमु य गेरइएसु ग गणुरगेमु य देवेसु य होजा।
कठिन शब्दार्थ-कहि-कहां पर, समजिणिसु-समजन किया--ग्रहण किया, समारसु-आचरण किया। . भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन ! जीव ने किम गति में पाप-कर्मों का समर्जन (ग्रहण) किया था और किम गति में आचरण किया था ?
१ उत्तर-हे गौतम ! (१) सभी जीव तियंच-गति में थे। (२) अथवा सभी जीव तिर्यच-योनि और नरक-योनि में थे। (३) अथवा सभी जीव तिर्यच योनि और मनुष्य में थे। (४) अथवा सभी जीव तियंच योनि
और देव में थे। (५) अथवा सभी जीव तियं च-योनि, नैरयिक और मनुष्य में थे। (६) अथवा सभी जीव तियंच-योनि, नैयिक और देव में थे। (७) अथवा सभी जीव तिर्यच-योनि, मनुष्य और देव में थे। (८) अथवा सभी जीव तिर्यच-योनि, नैरयिक, मनुष्य और देव में थे। (उस-उस गति में उन्होंने 'पाप-कर्म का समर्जन और समाचरण किया था)।
२ प्रश्न-सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्मं कहिं समजिणिंसु, कहिं समायरिंसु ? __२ उत्तर-एवं चेव । एवं कण्हलेस्सा जाव अलेस्सा । कण्हपक्खिया, सुकपक्खिया । एवं जाव अणागागेवउत्ता।
भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! सलेशी जीव ने किस गति में पाप-कर्मों का समर्जन और समाचरण किया था ?
२ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । कृष्णलेशी यावत् अलेशी, कृष्णपाक्षिक
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