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भगवती मूत्र-श ३१ उ. ४ कापोतलेशी नैरयिक की उत्पत्ति
कृष्णलेश्या के उद्देशक के अनुसार है। शेष पूर्ववत् ।
___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन-तीसरे उद्देशक में नीललेश्या वाले नयिकों की प्ररूपणा की गई है। नीललेण्या तीसरी, चौथी और पांचवीं नरक में होती है। इसलिए एक सामान्य दण्डक और तीन नरकों के तीन दण्डक, इस प्रकार चार दण्डक कहे हैं । यहाँ नीललेश्या का प्रकरणं चल रहा है । वह वालुकाप्रभा आदि में ही होती है। इसलिए उसमें जिन जीवों का उत्पाद होता है, उन्हीं का उत्पाद जानना चाहिए । इसमें असंजी और सरीसृप के अतिरिक्त शेष तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्य उत्पन्न होते हैं।
॥ इकतीसवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥
शतक ३१ उद्देशक ४
कापोतलेशी नैरयिक की उत्पत्ति
१ प्रश्न-काउलेस्सखुड्डागकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ?
- १ उत्तर-एवं जहेव कण्हलेस्सखुडागकडजुम्म०, णवरं उव. वाओ जो रयणप्पभाए, सेसं तं चेव ।
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