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भगवती सुत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ १ विग्रहगति
भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, जो इस रत्न-प्रभा पृथ्वी के पूर्व-दिशा के चरमान्त में मरण-समुद्घात कर के मनुष्यक्षेत्र में अपर्याप्त बादर तेजसकायिकपने उत्पन्न हो, तो कितने समय को विग्रहगति से उत्पन्न होता है ?
५ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत । इस प्रकार पर्याप्त बादर तेजसकायिकपने भी उपपात कहना चाहिये । जिस प्रकार सूक्ष्म और बादर अपकायिक में उपपात कहा, उसी प्रकार सूक्ष्म और बादर वायुकायिक और वनस्पतिकायिक में भी कहना चाहिये।
६ प्रश्न-पजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए० ?
६ उत्तर-एवं पजत्तसुहमपुढविकाइओ वि पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता एएणं चेव कमेणं एएसु चेव वीससु ठाणेसु उववाएयव्वो जाव बायरवणस्सइकाइएसु पजत्तएसु वि ४० । एवं अपजत्तबायरपुढविकाइओ वि ६० । एवं पजत्तबायरपुढविकाइओ वि ८० । एवं आउकाइओ वि चउसु वि गमएसु पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, एयाए चेव वत्तव्वयाए एएसु चेव वीसहठाणेसु उववाएयव्वो १६० । सुहुमतेउकाइओ वि अपजत्तओ पजत्तओ य एएसु चेव वीसाए ठाणेसु उववाएयव्वो।
भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभा पृथ्वी के इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न ।
६ उत्तर-हे गौतम ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव भी रत्नप्रमा
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