Book Title: Bhagvati Sutra Part 07
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 568
________________ भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. २ विग्रहगति . ३७१९ तथा हे आयुष्यमन् श्रमण ! वे सर्वलोक में व्याप्त हैं। यही क्रम समी एकेन्द्रिय का है । उन सभी के स्वस्थान प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे स्थान पद के अनुसार है । पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव के उपपात, समुद्घात और स्वस्थान के अनुसार अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव के भी जानना चाहिये और सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के उपपात, समुद्घात और स्वस्थान के अनुसार सभी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना चाहिए। ३ प्रश्न-अणंतरोववण्णगाणं सुहुमपुढविकाहयाणं भंते ! कह कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ ? ३ उत्तर-गोयमा ! अटु कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ-एवं जहा एगिंदियसएसु अणंतरोववण्णगउद्देसए तहेव पण्णत्ताओ, तहेव बंधति, तहेव वेदेति जाव अणंतरोववण्णगा बायरवणस्सइकाइया । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के कर्म-प्रकृतियां कितनी कही है ? . ... ३ उत्तर-हे गौतम ! आठ कर्म-प्रकृतियां कही हैं इत्यादि एकेन्द्रिय शतक में अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के अनुसार । यावत् उसी प्रकार बांधते और घेदते हैं, यावत् अनन्तरोपपन्नक बादर वनस्पतिकायिक पर्यन्त । ४ प्रश्न-अणंतरोववण्णगएगिदिया णं भंते ! कओ उववजंति? ४ उत्तर-जहेव ओहिए उद्देसओ भणिओ तहेव । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव, कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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