________________
भगवती सूत्र - श. ३१ उ. १ क्षुद्रयुग्म
नैरमिक भी पूर्ववर्ती भव को छोड़ कर अध्यवसाय रूप कारण से अगले भव को प्राप्त करते हैं ) इत्यादि पच्चीसवें शतक के आठवें उद्देशक में नैरयिक संबंधी कथंनानुसार यावत् वे आत्म-प्रयोग से उत्पन्न होते हैं, पर प्रयोग से नहीं ।
३६४३
५ प्रश्न - रयणप्पभापुढ विखुड्डागकडजुम्मणेरड्या णं भंते ! कओ उववज्जेति ?
५ उत्तर - एवं जहा ओहियणेरइयाणं वत्तव्वया सच्चेव रयणप्पभाए वि भाणियव्वा जाव णो परप्पओगेणं उववज्र्ज्जति । एवं सकरप्पभाए वि जाव आहेसत्तमाए एवं उववाओ जहा वक्कंतीए । "असण्णी खलु पढमं दोच्चं व सरीसवा तइय पक्खी" । गाहाए उववायव्वा, सेसं तहेव ।
कठिन शब्दार्थ- सरसवा - सरीसृप - गोह आदि ।
भावार्थ - ५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्म राशि प्रमाण रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं० ?
५ उत्तर - हे गौतम! औधिक नैरयिक की वक्तव्यतानुसार रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक भी, यावत् वे पर प्रयोग से उत्पन्न नहीं होते पर्यन्त । इसी प्रकार शर्कराप्रभा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रांति पद के अनुसार यहाँ भी उपपात जानना चाहिये । यावत् 'असंज्ञी जीव पहली नरक तक, सरीसृप (भुजपरिसृप ) दूसरी नरक तक और पक्षी तीसरी नरक तक उत्पन्न होते हैं' इत्यादि गाथा से उपपात जानना चाहिये । शेष पूर्ववत् ।
Jain Education International
६ प्रश्न – खुड्डागतेओगणेरइया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? किं रहए हिंतो ० ?
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org