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भगवती मूत्र-श. २८ उ. १ पाप का समर्जन और तिर्यंच-गति
चरण से पाप-कर्म का उपार्जन किस गति में किया था ? अथवा गर्जन और समाचरण शब्द पर्यायवाची हैं। अत: दोनों गब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं।
तियंच-योनि अधिक जीवों का आश्रय होने से सभी जीवों की माता रूप है । इसलिये अन्य नारकादि सभी जीव कदाचित् तिर्यंच से आ कर उत्पन्न हा हों, इसलिये वे 'सभी तिर्यंच-योनि में थे' ऐसा कहा जाता है । इसका अभिप्राय यह है कि किसी विवक्षित समय में जो नरयिक आदि थे, वे अल्प होने के कारण, मोक्ष चले जाने से तथा तियंच गति में प्रवेश कर जाने मे उन विवक्षित नरयिकों की अपेक्षा नरक गति निर्लेप (खाली) हो गई हो, किंतु तियंच गति, अनन्त होने से निर्लेप नहीं हो सकती, अतः उन तिर्यंच में से निकल कर उन विवक्षित नैरयिकों के स्थान में नैरयिक रूप से उत्पन्न हुए हों, उनकी अपेक्षा यह कहा जा सकता है कि उन सभी ने तियंच-गति में नरक गत्यादि के हेतुभत पाप-कर्मों का उपार्जन किया था। यह प्रथम भंग है अथवा विवक्षित समय में जो मनुष्य
और देव थे, वे निर्लेप रूप से वहाँ से निकल गये और उनके स्थानों में तिथंच और नरक गति से आ कर जीव उत्पन्न हो गये। उनको अपेक्षा दूसरा भंग बनता है कि सभी तियंचयोनिक और नैरयिक में थे। जो जहाँ थे, वहीं पर उन्होंने कर्म उपार्जन किये । अथवा विवक्षित समय में जो नैरयिक और देव थे, वे उसी प्रकार वहां से निलेप रूप से निकल गये और उनके स्थानों में तिथंच और मनुष्य से आ कर उत्पन्न हो गये । उनकी अपेक्षा यह तीसरा भंग बनता है कि सभी तिर्यंच और मनुष्य में थे। जो जहाँ थे, उन्होंने वहीं पर कर्म उपार्जन किये। इस प्रकार आठों ही भंगों के विषय में जानना चाहिये। - इन आठ भंगों में से पहला भंग तिर्यंच गति का ही है। दूसरा, तीसरा और चौथा-तिर्यंच और नैरयिक, तिर्यंच और मनुष्य, तियं च और देव, इस प्रकार दिक-संयोगी बनते हैं। पांचवां, छठा और सातवां, ये तीन भंग--(१) तिर्यच, नैरयिक और मनुष्य (२) तियंच, नैरयिक और देव तथा (३) तियंच, मनुष्य और देव, इस प्रकार त्रिमंयोगी बनते हैं । आठवां भंग-तिर्यन, नैरयिक, मनुष्य और देव, इस प्रकार चतुःसंयोगी बनता है।
. इस प्रकार सलेशी आदि सभी के पाग-कर्म आदि नौ दण्डकों के साथ आठ-आठ भंग कहना चाहिये।
॥ अट्ठाईसवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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MOAMARARE
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