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भगवती सूत्र - श. २९ उ. २ अनन्तरोपपत्रक कर्म - भोग
भावार्थ - १ प्रश्न हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक नैरयिक पाप-कर्म को एक साथ भोगना प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं ० ?
१ उत्तर- हे गौतम! कितने ही नैरयिक एक साथ प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं, तथा कितने ही नरयिक एक साथ प्रारंभ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं ।
२ प्रश्न - से केणणं भंते ! एवं बुचड़ - ' अत्थेगइया समायं पट्टर्विसु-तं चेव' ?
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२ उत्तर - गोयमा ! अतरोववण्णगा णेरड्या दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - अत्थेगइया समाज्या समोववण्णगा, अत्थेगइया समाज्या विसमोववण्णा । तत्थ णं जे ते समाज्या समोववण्णगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविंसु समायं णिटुविंसु । तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववण्णगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविंसु विसमायं णिट्टविंसु । सेते - तं चैव ।
भावार्थ-२ प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं ०
२ उत्तर - हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक नैरयिक दो प्रकार के हैं। यथाकितने ही नैरयिक समान आयु वाले और समान उत्पत्ति वाले होते हैं, तथा कितने ही समान आयु वाले और विषम उत्पत्ति वाले होते हैं । जो समान आयु वाले और समान उत्पत्ति वाले हैं, वे पाप कर्म का वेदन एक साथ प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं। जो समान आयु वाले और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे पाप कर्म का भोगना एक साथ प्रारंभ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं । इस कारण हे गौतम! पूर्वोक्त कथन है ।
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