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भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ आलोचना के योग्य
२ अणुमाणइत्ता (अनुभान्य)-'बिलकुल छोटा अपराध बताने में गुरु महाराज मुझे बहुत थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे'-ऐसा अनुमान कर के अपने अपराध को बहुत छोटा कर के बताना।
३ दिट्ट (दृष्ट )-जिस अपराध को गुरु महाराज आदि ने देख लिया हो, उसी को आलोचना करना ।
४ बायरं (बादर)-केवल बड़े-बड़े अपराधों की आलोचना करना और छोटे अपराधों की उपेक्षा कर उनकी आलोचना नहीं करना।
५ सुहुम (सूक्ष्म)-'जो अपने छोटे-छोटे अपराधों की भी आलोचना कर लेता है, वह बड़े अपराधों को कैसे छोड़ सकता है'-ऐसा विश्वास उत्पन्न कराने के लिये केवल छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना ।
६ छण्णं (छन्न-प्रछन्न)-अधिक लज्जा के कारण अव्यक्त शब्द बोलते हुए इस प्रकार आलोचना करना कि जिनके समीप आलोचना की जाय वह न सुन सके ।
७ सद्दाउलयं (शब्दाकुल)-दूसरे अंगीतार्थों को सुनाने के लिये ऊँचे स्वर से बोलकर आलोचना करना ।
८ बहुजणं (बहुजन)-एक ही अतिचार की बहुत-से साधुओं के समीप आलोचना करना।
__९ अन्वत्त (अव्यक्त)-अगीतार्थ अर्थात् जिस साधु को पूरा ज्ञान नहीं है कि किस भतिचार का कैसा प्रायश्चित्त दिया जाता है, उसके समक्ष आलोचना करना। '
१० तस्सेवी (तत्सेवी)-जिस दोष की आलोचना करनी हो, उसी दोष को सेवन करने वाले आचार्य के पास आलोचना करना ।
ये आलोचना के दस दोष हैं । इन्हें टाल कर शुद्ध हृदय से आलोचना करनी चाहिये।
आलोचना के योग्य ९९-दसहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहइ अत्तदोसं आलो. इत्तए, तंजहा-जाइसंपण्णे, कुलसंपण्णे, विणयसंपण्णे, णाणसंपण्णे,
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