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आलोचना देने योग्य १००-अहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहह आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा-आयारवं, आहारखं, ववहारवं, उव्वीलए, पकुब्बए, अपरिस्सावी, णिजवए, अवायदंसी।
- भावार्थ-१००-आठ गुणों से युक्त साधु आलोचना देने के योग्य होते हैं। यथा-१ आचारवान २ आधारवान ३ व्यवहारवान् ४ अपव्रीड़क ५ प्रकुर्वक ६ अपरिस्रावी ७ निर्यापक और ८ अपायदर्शी।।
विवेचन-आठ गुणों से युक्त साधु आलोचना सुनने के योग्य होते हैं । यथा१ आचारवान्-ज्ञानादि पाँच प्रकार के आचार वाला। २ आधारवान्-बताये हुए अतिचारों को मन में धारण करने वाला। ३ व्यवहारवान्-आगम-व्यवहार, श्रुत-व्यवहार आदि पांच प्रकार के व्यवहार वाला।
४ अपव्रीड़क-लज्जा से अपने दोषों को छिपाने वाले शिष्य को लज्जा, मीठे वचनों से दूर कर के भली प्रकार से आलोचना कराने वाला।
५ प्रकुर्वक-आलोचना किये हुए दोष का प्रायश्चित्त दे कर अतिचारों की शुद्धि कराने में समर्थ ।
६ अपरिस्रावी-आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे के समक्ष प्रकट नहीं करने वाला।
७ निर्यापक-अशक्ति या किसी अन्य कारण से एक साथ पूरा प्रायश्चित्त लेने में असमर्थ साधु को थोड़ा-थोड़ा प्रायश्चित्त दे कर निर्वाह कराने वाला ।
८ अपायदर्शी-आलोचना नहीं लेने में परलोक का भय तथा दूसरे दोष दिग्वा कर भला प्रकार आलोचना कराने वाला।
आलोचना सुनने वाले के यहाँ उपर्युक्त आठ गुण बताये हैं, किन्तु स्थानांग सूत्र में दस गुण भी बताये हैं, जिनमें ५ प्रियधर्मी और १० दृढ़धर्मी-ये दो गुण अधिक है।
समाचारी के भेद १०१-दसविहा सामायारी पण्णत्ता, तं जहा
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