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भगवती मूत्र श. २५ उ. ७ प्रतिसंलीनता तप
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मुक्के । मेतं कायकिलेसे ।
कठिन शब्दार्थ-उक्कु डुयसाहिए- उत्कुटकासनिक । भावार्थ-११७ प्रश्न-हे भगवन् ! काय-यलेश तप कितने प्रकार का है ?
११७ उत्तर-हे गौतम ! काय-वलेश तप अनेक प्रकार का है । यथास्थानातिग, उत्कुटुकाप्सनिक आदि औपपातिकसूत्रानुसार यावत् शरीर के सभी प्रकार के संस्कार और शोमा का त्याग करना । यह काय-क्लेश तप हुआ।
विवेचन--शास्त्र-सम्मत रीति से काया अर्थात् शरीर को कलेश (कष्ट ) पहुंचाना 'काय-क्लेश' तप है। उग्र वीरासनादि आसनों का सेवन करना, लोच करना, शरीर की शोभा-शुश्रूषा का त्याग करना आदि काय-क्लेश के अनेक भेद हैं। औपपातिक सूत्र में स्थानस्थितिक, स्थानातिग, उत्कुटुकासनिक आदि भेद दिये हैं ।
प्रतिसंलीनता तप
११८ प्रश्न-से किं तं पडिसंलीणया ?
११८ उत्तर-पडिसलीणया चउब्विहा पण्णता, तं जहा-इंदियपडिसंलीणया, कसायपडिसलीणया, जोगपडिसलीणया, विवित्तसयणासणसेवणया।
भावार्थ-११८ प्रश्न-हे भगवन ! प्रतिसंलीनता कितने प्रकार की कही है ?
११८ उत्तर-हे गौतम ! प्रतिसंलोनता चार प्रकार की है। यथाइंद्रिय-प्रतिसंलीनता, कषाय-प्रतिसं लीनता, योग-प्रतिसंलीनता और विविक्त शयनासनसेवनता।
११९ प्रश्न-से किं तं इंदियपडिसलीणया ?
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